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Sunday 16 October 2022

सत्रह वर्ष पहले।

रोज़गार हमेशा से सभी के लिए चिंता का विषय रहा है। तक़रीबन आज से सत्रह वर्ष पहले, मैं भी रोज़गार की तलाश में दर बदर बिखरे हुए लक्ष्य के साथ कईं बार (लोको पायलट की नौकरी के सपने) के साथ लंबे सफ़र, भीड़, हिलने डुलने की भी जगह नहीं और जैसे तैसे दी गयी परीक्षा। उफ़्फ़!!! बिना लक्ष्य का सफ़र इसलिए कि मैंने ख़ुद से ज़्यादा दुनिया की सुनी और दुनिया सिर्फ़ सुनाती है और ज़्यादातर लोगों को सुननी ही पड़ती है। दुनिया में बहुत कम लोग हैं जो सही रास्ता बताते हैं। मुझे ऐसे लोग अब जाकर क़िताबों में मिले हैं। जो रोशनी की किरण दिखाते हैं। इन क़िताबों के ज़्यादातर लेखक विदेशी हैं। वैसे दुनिया के कारण "जो ना होना था मुझे, वो मुझे होना पड़ा।"


उत्तर प्रदेश PET 2022 की इन तस्वीरों ने मेरे अतीत की कुछ यादों को कुरेदा है। हालाँकि मेरे पास रेल में बैठने के लिए सीट होती थी। पूरी सीट पर छः लोग, जब कि ठीक से चार लोग ही बैठ सकते थे। इनके अलावा भी बहुत सारी परेशानियाँ झेलनी पड़ती है जिनका ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी नहीं क्यों कि हर आम आदमी के जीवन के संघर्ष के साथ ये परेशानियाँ जुड़ी होती हैं। वैसे उस वक्त आबादी कम होने के कारण रेल में भीड़ आज से थोड़ी कम होती थी। मेरी नज़र में ज़िंदगी को समझने का सबसे अच्छा तरीक़ा है रेल। रेल इसलिये कि इसमें हर वर्ग के आदमी के लिए कोच है। सामान्य, स्लीपर, 3rd AC, 2nd AC और 1st AC जिसके जैब में जितना पैसा है वो वैसे कोच में सफ़र कर सकता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शाही रेल में सफ़र करते हैं। अगर बहुत कम पैसे हैं तो वे सामान्य कोच की किसी सीट, फ़र्श पर बैठकर या खड़े - खड़े, यहाँ तक कि दरवाज़े पर बाहर की तरफ़ लटक कर भी सफ़र करते हैं। दरवाज़े के बाहर लटककर सफ़र करना बहुत ख़तरनाक होता है, इतना ख़तरनाक़ की पलक झपकते ही जान जा सकती है। ये सब कुछ जानने के बाद भी मजबूरियाँ ही आदमी से ऐसा करवाती हैं।


जिसके पास जितने ज़्यादा पैसे हैं, वो ज़िंदगी के उतने ही ज़्यादा मज़े ले सकता है। कुछ लोग हमेशा उदाहरण देते है कि पैसा ख़ुशी का पैमाना नहीं। मान लिया कि शत प्रतिशत ख़ुशी नहीं दे सकता पैसा, लेकिन बिना पैसे के भी कोई ख़ुश रहा हो या जीवन यापन कर पाया हो तो बतायें। साधु संतों को यहाँ नहीं गिने क्यों कि वे मोह माया से मुक्त हैं। पैसा आदमी के जीवन को सरल, सुगम और सुलभ कर देने की ताकत रखता है। आदमी को मजबूत पैसे का प्रभाव बनाता है और मजबूर पैसे का अभाव। पैसे को बुरा कहकर इसे हाथ का मेल कहने वाले लोग भी मुट्ठी भींचकर रखते हैं, क्योंकि कहीं उनके हाथ का मेल निकल ना जाये। मैंने अब तक कोई ऐसा आदमी नहीं देखा जिसकी पैसे के बिना सुबह हुई हो या शब ढली हो।


मैं हमेशा से जनसंख्या वृद्धि का विरोध करता आया हूँ और जनसंख्या नियंत्रण की पैरवी। जनसंख्या वृद्धि की रफ़्तार अगर यही रही तो जनसंख्या विस्फोट होना तय है। स्वार्थ की पराकाष्ठा तक विस्फोट। लोग जनसंख्या नियंत्रण पर दबे होंठ ही बात करते हैं क्योंकि हमारे समाज की इस विषय पर सहज स्वीकृति नहीं है। एड्स काउंसलर होने के नाते सरकार ने मुझ पर ये ज़िम्मेदारी सौंप रखी है कि मैं लोगों को जागरूक करूँ। इसलिए मैं अब समाज के इस दायरे से बाहर हूँ।


मैं एक कहावत सुनता आ रहा हूँ। पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय। इस कहावत का मतलब है कि अगर बेटा सपूत है तो वो ख़ुद धन का निर्माण कर लेगा और अगर वो कपूत है तो पूर्वजों के कमाए धन को भी गँवा देगा। मैं इस कहावत से बिल्कुल भी सरोकार नहीं रखता। पूत सपूत हो या कपूत अपने बच्चे के लिए धन का निर्माण करना हर एक पिता की ज़िम्मेदारी है। कपूत हुआ तो खो देगा, खो देने दो, खो देना कपूत का कर्म, लेकिन सपूत में वो क़ाबिलियत नहीं हुई जिससे वो धन का निर्माण कर सके या सपूत के गंभीर रोगी होने की स्थिति में सपूत का क्या दोष जब कि सपूत अच्छा और बहुत अच्छी आदतों का धनी है?


मैं ठाकुर जी और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इतना कुछ (पूँजी और वित्तीय ज्ञान) छोड़कर जाना चाहता हूँ कि वे किसी पर आश्रित ना हों। वे अपने जन्म लेने के उद्देश्य को समझते हुए जीवन के हर क्षण का लुत्फ़ ले सकें। इतने सामर्थ्यवान हों कि अपनी आवश्यकताओं के साथ किसी ज़रूरतमंद की भी मदद कर सकें।


~ मनीष शर्मा


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