दोस्तों !
दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को घटित 23 वर्षीय छात्रा के साथ हुई बलात्कार की घटना को मैने अपने शब्दों को एक कविता के रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया हैं उम्मीद रखता हूँ कि आप लोग इसे कविता ना समझकर के एक ऐसा आहृवान समझेगें जिसमें हम सभी मिलकर के यह प्रण करें कि समाज में फ़िर से कभी भी बलात्कार जैसा घिनौना कृत्य दोबारा ना हो पाये।
जीवन जीना चाहती हूँ मैं
सारी खुशियाँ
अपनी झोली में समेट के
दुनिया देखना चाहती हूँ मैं
पिया संग ब्याह रचा
डोली में बैठ के
कुछ ख्वाब हैं मेरे कुछ अरमां भी
कुछ हया हैं मुझमें कुछ लाज भी
हंसती हूँ खेलती हूँ गुनगुनाती हूँ
कभी-कभी होती हूँ गमग़ीन
तो भी मुस्करा लेती हूँ
बेहद खूबसूरत था अतीत मेरा
कल्पना हैं उम्दा होगा भविष्य भी
मगर क्या अपने क्या बेगाने
हर एक नजर हैं हवस भरी
मैं इंसानों के शहर में सुरक्षित नहीं
तो किस शहर में घर बसाऊँ
मेरे सव्वालों का जवाब
किसी के पास नहीं
कोई तो बताओ
कोई तो सुझाओ
अब मैं कहाँ जाऊँ
सुना था हसरतें
कभी पूरी नहीं होती
पर आज यकीन भी हो रहा हैं
सुना था वक्त
सदा एक सा नहीं रहता
पर आज महसूस भी हो रहा हैं
आज एक भयकंर तूफाँ आया हैं
मझधार में भगवान ने मुझे फँसाया हैं
मैने गौर से देखा तो मेरे सामने
जालिम, वैहशी, हैवान, दरिंदे थे
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं
वो पूरे के पूरे छः थे
मैं बहुत गिड़गिड़ाई
की लाख दुहाई
पर किसी ने मेरी
एक ना मानी
मिलकर सभी ने बारी-बारी
तार-तार कर दी मेरी अस्मत
मैं स्तब्ध थी लहू से लथपथ
फेंक दिया जालिमों ने
मुझे र्निवस्त्र कर पथ पर
राहगीरों की निगाह
मुझे घूरती रही
पर मदद को हाथ
किसी के ना उठे
अब मैं दोष मढूँ
तो किस पर
समाज़ पर, भगवान पर
या फिर अपनी
किस्मत पर
आज ये मेरे साथ
कल कोई और होगा
पर किसी को नहीं हैं जुर्म से गिला
चलता आ रहा हैं और चलता रहेगा
क्या सदैव ये सिलसिला
मेरा जीवन-मृत्यु संघर्ष जारी हैं
क्यों कि मैं जीवन जीना चाहती हूँ
मै बलात्कारियों के खिलाफ
सख्त कानून की इच्छा रखती हूँ
जो मैंने सहा वो कोई और ना सहे
भगवान से बस यहीं कामना रखती हूँ
मगर जीवन-मृत्यु संघर्ष में
आखिर मृत्यु विजयी रही
हार गई जिदंगी
हार गई जिदंगी!!
अलविदा!