विश्व इतिहास में कोरोना से भयावह मंज़र शायद ही किसी ने कभी सुना हो या देखा हो। अकाल मृत्यु का ग्रास है कोरोना। जिसमें ज़रा सी भी लापरवाही ना जाने कितने लोगों की ज़िंदगी लील सकती हैं। विकसित देशों की सरकारें जब कोरोना के सामने हाथ खड़े कर चुकी हैं तो हम कोरोना पर विजय लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ कैसे कर पायेंगे। ये एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब घर में क़ैद रहकर ही दिया जा सकता है। सरकार चाहती है हम लोग घर मे रहे ताकि ज़िंदा रह सकें। हमें सरकार की बात माननी चाहिए क्यों कि सवाल ज़िंदगी का है।
आर्थिक रूप से सबसे ताक़तवर, सर्वश्रेष्ठ देश होने की ये कैसी होड़ लगी कि आज मानवता ही ख़तरे में पड़ गयी। कल का सूरज कौन देखेगा, कौन नहीं, ये भविष्य की गर्त में छिपा है। मैं हमेशा से कहता आया हूँ कि हाड़ माँस के पुतले को ख़त्म करने के लिए बारूद इकट्ठा ना करें। इस पुतले को उम्र के सत्तर साल तक महफ़ूज़ रख पाने के साधन जोड़े, क्योंकि हम कौन से यहाँ अमर हो के सदियाँ जीने आयें हैं। अस्पताल बनवाने की बजाय हमने मोटे दामों पर हमेशा बारूद ख़रीदा। स्वास्थ्य पर धन खर्च करने की बजाय हमने सैन्य व्यवस्थाओं को दुरुस्त रखने के धन खर्च किया। यहाँ मैं अपने ही कथन का खंडन भी करता हूँ कि तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि हम अपने आने वाले जीवन को कैसे जीयेंगे। हमें बारूद इसलिए जोड़ना पड़ा कि पड़ौसी देशों का हम पर ख़तरा निरंतर बना रहता हैं। पड़ौसी, पड़ौसी का दुश्मन।
इंसान को ज़िंदा रहने के लिए प्रेम चाहिए, हमने नफ़रतों के बाज़ार खोल दिये। कहीं नफ़रत कम ना पड़ जाये तो हमने उसे मज़बूत रखने के लिए धर्म और मज़हब की दुकानें भी लगा दी।
विश्व एक क़ैदखाने में तब्दील हो चुका है। एक ऐसी क़ैद जिसमें धन सम्पन्न लोग अपना समय अच्छे से व्यतीत कर रहे हैं क्योंकि उनके पास वे सभी सुख सुविधाएं हैं जिनके बूते वे कईं महीनों तक ज़िंदा रह सकते हैं। लेकिन वे लोग जो सुबह कमाने के लिए निकलते है शाम को खाते है। वे संघर्ष के बहुत बुरे दौर से गुज़र रहे हैं। लेकिन अभी सवाल ज़िंदा रहने का है रोज़ी रोटी से भी बड़ा सवाल है ज़िंदा रहना। वैसे ग़रीबी से बड़ी कोई बीमारी नहीं। ये बीमारी रोज़ रोज़ थोड़ा थोड़ा मारती है। वैसे अमूमन देखा गया है कि धरती पर जब भी कोई माहमारी फ़ैली है लाखों लोगों की बलि चढ़ी हैं। लेकिन इस बार की माहमारी में भूख से कोई ना मरे ये हमारा परम दायित्व होना चाहिए। सच्ची सेवा मानव सेवा, बाक़ी सब तो ढोंग है, छलावा है।
उम्मीद की जा सकती है कुछ महीनों के बाद सब कुछ पहले की भांति सामान्य हो जायेगा। ज़िंदगी की गाड़ी पटरियों पर दौड़ने लगेंगी। लेकिन तब तक फ़ासलों की खाई बहुत गहरी हो चुकी होगी। कोई किसी के क़रीब आने से भी डरेगा। लोग अपने स्वार्थ के चलते चाहते थे कि उनकी दुनिया सीमित हो। वे फले फूले, भले दुनिया भाड़ में ही क्यों ना जाये। कोरोना ने इतना सीमित कर दिया कि अब कोई किसी से गले ना मिलेगा तपाक से।
वैसे प्रधानमंत्री जी के लॉक डाऊन किये जाने के आदेश के बाद से ही देश की लगभग सारी समस्याएं ख़त्म हो चुकी हैं। इससे ये साबित होता है कि ढेरों समस्याओं को हम बेवज़ह जन्म देते हैं वास्तविकता में समस्याएं कभी इतनी जटिल नहीं होती हैं। हम विकास या प्रगति करने की बजाय समस्याओं को द्रोपदी की चीर की तरह खींचते रहते हैं।
एक निवेदन भारत सरकार से कि जिस तरह सरकार ने सेना को अस्त्र शस्त्र देकर सीमा पर मुस्तैद किया है उसी तरह हमारे देश के डॉक्टर, नर्स, लेबोरेटरी तकनीशियन, तकनीकी एवं नॉन तकनीकी वर्ग के सभी कार्मिक, पुलिस, सफ़ाईकर्मियों एवं वे सभी लोग को अपने घर से बाहर केवल इसलिए हैं कि देश में घर के भीतर बैठे लोग सुरक्षित रह सकें। ऐसे सभी लोगों को कोरोनो से बचाव से संबंधित सभी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट किट उपलब्ध करावें। ताकि वे अपने कार्यों को बेहतर तरीक़े से संपादित कर सकें।
तस्वीर में जो व्यक्ति दिखाई दे रहे हैं। इनकी सहमति के पश्चात ही इनकी ये तस्वीर खींची गई है। कोरोना से बचाव के लिए इन्होंने नॉन वोवन केरी बैग लगा रखा है।
मिलकर बोये थे सब ने बीज़ काँटों के
वृक्ष बनकर वे आज भला फूल दें कैसे ?
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~ मनीष शर्मा