मैं मेरी जिंदगी मेरे मुताबिख जीना चाहता हूँ, और ये भी ख्याल रखना चाहता हूँ कि मेरी वजह से किसी कि भावनाऐं आहत ना हो, पर शायद ये मुमकिन नहीं क्यों कि आग और पानी भला एक दूसरे के मित्र कैसे बन सकते हैं, मुझ पर पाश्चात्य संस्कृति की गहरी छाप हैं पर शायद ये मेरी संस्कृति वाले लोगों को बरदाश्त नहीं, इन्हें शायद पाश्चात्य संस्कृति में अश्लीलता नज़र आती हैं पर मेरी नज़र में अश्लीलता देखने वाले की नज़रो में होती हैं ना कि संस्कृति में। पाश्चात्य संस्कृति वाले लोग कम से कम जैसे हैं वैसे दिखाई तो देते हैं हम लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं, मन में तो अश्लीलता भरे हुए हैं और चेहरे पर सात्विक नकाब लगाऐ घूम रहे हैं, मैं जानता हूँ मेरे इन लव्जों की वज़ह से मेरी छवि उन लोगों में बहुत खराब हो जाएगी जो मेरी बात से सरोकार नहीं रखते पर जैसा कि मैंने कहा ‘‘मैं मेरी जिंदगी मेरे मुताबिख जीना चाहता हूँ‘‘ तो क्यों ना मैं जीने का प्रयास बड़ी शिद्दत से करूँ.........
कद इथ डोले, कद उथ भागे, बावरा मनवा मोरा, मोरी इक ना माने मन, मन के आगे, अब मैं हारा !!!
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Sunday 17 March 2013
मेरी जिंदगी मेरे नियम
Doctor of naturopathy & yoga | Counselor | Writer | Lyricist | Composer.
Saturday 2 March 2013
"तानाशाह सम़ाज़, बेबस इंसान"
अग़र मैं सब कुछ सम़ाज़ के मुताबिख करता हूँ तो मैं एक समाज़िक प्राणी हूँ अगर मैंने सम़ाज़ के खिलाफ़ ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने का प्रयास किया या फ़िर अपनी ज़िदगीं को अपने सिद्धातों के अनुसार जीने का प्रयास किया तो मैं (समाज़िक प्राणी) सम़ाज़ से बाहर। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि क्या, मैं इसी सम़ाज़ का अंश हूँ जो मेरी हर खुशी में शरीक़ हैं, लेकिन ग़म़गीन अवस्था में क्यों मैं खुद तन्हा ही पाता हूँ कहाँ चला जाता हैं सम़ाज़ उस वक्त, जब़ मुझे सम़ाज़ की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती हैं, ढकोसला लग़ता हैं मुझे ये सम़ाज़ और इसके नियम, जब सम़ाज़ को मेरी परवाह नहीं तो मुझे भला क्यों परवाह हो इस सम़ाज़़ की।
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