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Monday 11 May 2020

मानव जीवन बनाम अर्थव्यवस्था

दो अलग अलग संस्कृतियाँ, एक पाश्चात्य दूजी भारतीय। एक संस्कृति रिश्तों और मानव जीवन को महत्व देती है तो दूसरी संस्कृति अर्थव्यवस्था को। ज़ाहिर है कि इन दोनों संस्कृतियों में रहने वाले लोगों की सोच भी अपनी अपनी संकृति के मुताबिक़ होगी।

अब मुद्दे पर आते हैं। चाईना से कोरोना फ़ैलना शुरू हुआ। धीरे धीरे सभी देशों में फ़ैल गया। बात अमेरिका और भारत की करते हैं। अमेरिका ने लॉकडाऊन नहीं किया क्यों कि शायद पाश्चात्य संस्कृति में भावनाओं को ज़्यादा जगह नहीं मिलती। वहाँ की सरकार का मानना है कि अर्थव्यवस्था सतत चलती रहनी चाहिए, चाहे लोग क्यों ना मरे। वहाँ की सरकार पहले से ही लगभग इतने लोग कोरोना से मरेंगे के पूर्वानुमान लगा लेती है। वहीं भारत में पहले दिन जनता कर्फ़्यू लगता है। इसके एक दिन बाद पूरे देश में लॉकडाऊन हो जाता हैं। जो जहाँ हैं उसे वहीं रहने का फ़रमान सुना दिया जाता हैं। रेल, बस और हवाई यातायात एकाएक रोक दिया जाता है। हमारे देश में आज से पहले ऐसी स्थिति कभी नहीं हुई। हमारी संस्कृति में मानव जीवन महत्व रखता है। हमारा और हमारी सरकार का मानना है कि जिस देश में जनता ही नहीं बचेगी तो अर्थव्यवस्था किसके काम आयेगी। जनता कुछ दिनों के इस लॉकडाऊन का पूरी तरह से पालन करती हैं कि दूसरे तरफ़ धीरे धीरे कुछ सेवाओं में छूट देते हुए तीसरे लॉकडाऊन की घोषणा कर दी जाती हैं। जनता दो लॉकडाऊन तक तो ख़ुद को संभालती है लेकिन तीसरे लॉकडाऊन तक पहुँचते पहुँचते सब्र का बाँध टूटने लगता है। जनता के सामने दो विकल्प बचते हैं या तो कोरोना से मर जायें या भूख से। भूख से मर जाना, कोरोना से मर जाने भी ज़्यादा बेरहम लगता है इसीलिये जनता को पहला विकल्प ज़्यादा सरल लगता है। वहीं धीरे धीरे सरकार सब कुछ सामान्य करने में जुट जाती हैं। कुछ व्यवसायों में ढ़ील दे दी जाती हैं। आंशिक कर्फ़्यू रखा जाता है।

वहीं इसी दरम्यान कोटा पढ़ाई करने गए छात्रों को बसों द्वारा उनके राज्यों तक पहुँचाया जाता हैं। क्योंकि वे पूँजीपतियों की सन्तान हैं।। लेकिन दूसरे राज्यों में कमाने गए मजदूर अपने घरों के लिए अपने परिवार के साथ मीलों का सफ़र भूखे प्यासे पैदल ही तय करने पर मजबूर होते हैं।

किसी भी देश की जनता को सरकारों द्वारा कभी भी एक जैसा व्यवहार नहीं मिलता।

"मेरा मानना है कि ग़रीब और अमीर के बीच की दीवार कलयुग की समाप्ति से पहले कभी नहीं ढहेगी।"

तीसरे लॉकडाऊन के मध्य में सरकार कुछ मजदूरों को उनके राज्यों तक पहुँचाने में लिए रेलों की व्यवस्था करती है। लेकिन इस व्यवस्था से सभी मजदूर अपने घर तक पहुँच सके, सरकार के लिए ये भी आसान नहीं। एक बड़ी चुनौती है।

लेकिन तीसरे लॉकडाऊन के ख़त्म होने से पहले जनता के सुर बदलने लगते हैं। जनता कहती है कि मजदूरों को अगर उनके राज्यों तक लाया जायेगा तो कोरोना का ख़तरा बहुत ज़्यादा बढ़ जायेगा। अगर सरकार को मजदूरों को लाना ही था तो ये काम पहले लॉकडाऊन से पहले ही कर लिया जाता तो बेहतर होता।

हमारे विचार भी हमारी तरह दोगले हो चुके हैं, बहरूपिये हो चुके हैं। हम तत्कालीन परिस्थितियों को जेहन को में रखते हुए सोचते हैं ना कि दूरग़ामी।

सोचिये अगर सरकार लॉकडाऊन नहीं करती तो शायद अमेरिका से बुरे हालात हमारे देश के हो सकते थे। लॉकडाऊन नहीं करती तो जनता कहती हमने किस सरकार का चुनाव कर लिया जो जनता को नहीं, अर्थव्यवस्था को बचाना चाहती है। इन सबके बीच शायद सरकार भी नहीं बचती। लेकिन सरकार ने जनता को बचाने के पूरे प्रयास किये। प्रश्न ये खड़ा होता है कि क्या मोदी ने जो किया वो सही फ़ैसला था या ट्रम्प ने जो किया वो सही फ़ैसला था।

कोरोना से लड़ाई बहुत लंबी चलेगी। अब हमें हमारी समझदारी ही बचा सकती है।

~ मनीष शर्मा