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Sunday 30 September 2018

आधुनिक भारत।

आधुनिक भारत।

भारत इस वक़्त आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। मगर सरकार का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं हैं। अगर ऐसा कुछ नहीं हैं तो डॉलर की तुलना में रुपये की क़ीमत क्यों गिर रही हैं ? पेट्रोल - डीजल से लेकर खाने पीने की सभी चीज़ों के भाव आसमान क्यों छू रहे हैं ? तो फिर क्यों कुछ शहरों में लोग इस आर्थिक संकट की वज़ह से शहर से अपने गाँवों का रूख़ कर रहे हैं ?

सरकार और विपक्ष अपनी ग़ौरव बख़ान गाथायें गा रही हैं। जिन मुद्दों पर सरकार और विपक्ष को मंथन करने की आवश्यकता है उन मुद्दों पर इनका ध्यान कभी नहीं जाता। जैसे - जनसंख्या वृद्धि, भुखमरी, स्वास्थ्य, कुपोषण, धर्म, जातिवाद, आरक्षण और महिला सुरक्षा इत्यादि।

रोज़गार के अवसर इतने कम हो चुके हैं कि उच्च शिक्षा वाले लोग निम्न शिक्षा वाले लोगों के रोज़गार का चुनाव करने लगे हैं। निम्न शिक्षा वाले लोग हमाल मजदूरी करने पर मजबूर हैं।

सरकार पोषण पर आजकल बहुत सारे कार्यक्रम चला रही हैं। मगर दूर तक पोषण किसी गरीब के शरीर में नज़र नहीं आता। पोषण से जुड़ी बातें किताबी रह गई हैं। यहाँ तक कि फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के लिए सूखी रोटी ही पोषण हैं। वे जैसे तैसे एक वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेते है लेकिन शाम को उसका भी जुगाड़ होगा या नहीं इस बात की कोई गारंटी नहीं।

71 साल पहले मिली आज़ादी की क़ीमत अब सब भुला चुके हैं। वैसे ग़ुलामी करवाने वालों ने सिर्फ़ चेहरा बदला हैं। पहले गोरे थे, अब अपने ही रंग के हैं। ग़ुलाम हम पहले भी थे ग़ुलाम हम आज भी हैं। अगर ग़ुलाम नहीं है तो चुनाव हो जाने के बाद जिस प्रत्याशी को हम चुनते है। उसके द्वारा जनहित के कार्य सही प्रकार से नहीं किये जाने पर जनता मूक दर्शक की भाँति देखने के सिवाय क्या कर सकती है ? क्या उसे 5 साल से पहले बदल पाने का अधिकार जनता के पास हैं ?

जनता सच में मजबूर हैं और भारत से विकास कोसों दूर।

तस्वीर स्त्रोत : गूगल

~ मनीष शर्मा