हम सभी कूटनीतिज्ञ हैं। कब, कहाँ और कैसे अपनी ज़ुबाँ से फिर जायेंगे, पता नहीं। किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता, कोई जिये या तिल तिल मरे। अगर फ़र्क पड़ता तो पूँजीवाद, साम्यवाद को अपने पैरों तले कभी नहीं रौंदता।
देश हो या आदमी सभी की एक ही सोच है, व्यापार फलता फूलता रहना चाहिए। आदमी का क्या है, आयेंगे, जायेंगे। किसी और का दर्द हमें थोड़ी देर के लिए तकलीफ़ दे सकता है लेकिन उस दर्द से होने वाली तकलीफ़ भोगने वाले और उसके परिवार को जीवनपर्यंत उस दर्द से गुज़रना होता है या फिर यूँ कहें कि घुट घुटकर मरना होता है।
किसी भी हिंसा में बहुत सारे लोग मरते हैं। लेकिन मरने वालों के परिवारों के अलावा किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। बड़ी आबादी वाले देशों में आदमी की औक़ात जनगणना के आँकड़ों से ज़्यादा नहीं है। जहाँ आबादी कम है वे ज़रूर अपने जनसंसाधन को बचाना चाहते हैं। अधिक जनसंख्या वाले देश भगवान भरोसे जीते हैं। बायें हाथ की तर्जनी उँगली पर स्याही लगवाकर जनता जिन्हें चुनती हैं। शिखर पर पहुँच जाने के बाद वे उसी स्याही से जनता के मुँह पर कालिख़ पोतते हैं। मदद के नाम पर उनसे आश्वासन मिलते हैं, मदद नहीं।
काश, जिस तरह हमारे देश में दुर्लभ प्राणियों को बचाया जाता रहा है। उसी तरह से मानव भी दुर्लभ प्रजातियों में होता तो बेहतर होता।
अब मुद्दा ये नहीं है कि इज़रायल और फिलिस्तीन में से कौन सही है और कौन ग़लत। मुद्दा ये है कि मानवता मर चुकी है। दो दिन पहले हम सभी हर्षोल्लास से त्योंहार मना रहे थे। लेकिन वहीं एक देश बारूद के ढेर पे सुलग रहा था, सिसक रहा था, अब भी सुलग रहा है, सिसक रहा है। लेकिन हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ा, ना ही पड़ेगा। क्यों कि उस हिंसा के शिकार हम नहीं हैं।
वैसे एक घर सुलगता है किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन इस बार कोरोना ने पूरी दुनिया को सुलगाया है। इसीलिए थोड़ा बहुत बहुत फ़र्क सभी को ज़रूर पड़ रहा है। आहिस्ता आहिस्ता ये फ़र्क भी असर छोड़ देगा।
प्रेम की बात अब गीतों किस्सों और कहानियों में अच्छी लगती है। वास्तविकता में तो हम सभी ने नफ़रतों को गले से लगा लिया है। ख़ैर...
ये दुनिया अब मिट भी जाये तो क्या है, वैसे भी दोज़ख़ बना दिया है हमने इस दुनिया को।
~ मनीष शर्मा