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Wednesday 3 July 2019

फ़िल्म क़बीर सिंह की समीक्षा।


फ़िल्म क़बीर सिंह की समीक्षा मेरी क़लम से...

फ़िल्म क़बीर सिंह की क़ामयाबी ने ये साबित कर दिया कि भारतीय जनता आज भी सिनेमा के पर्दे पर भावनाओं (Emotions) का सैलाब देखना चाहती है, नफ़रत और हिंसा नहीं।

बात की जाए फ़िल्म के संगीत की तो फ़िल्म का दिलकश संगीत फ़िल्म की सबसे बड़ी ताक़त हैं। सारे गीत कर्णप्रिय हैं। कुछ गीत जुबाँ पर बड़ी आसानी से चढ़ते हैं जिनमें बेख़याली और तुझे कितना चाहने लगे हम प्रमुख हैं

फ़िल्म में क़बीर सिंह का क़िरदार सख़्त और गुस्सैल है लेकिन क़िरदार का दूसरा पहलू ये भी है कि क़बीर सिंह प्रेम से लबरेज़ है। इतने लबरेज़ कि फ़िल्म के पहले हॉफ तक क़बीर सिंह और प्रीति को अपने आस पास की दुनिया नज़र ही नहीं आती। ना उन्हें सुबह की ख़बर होती है ना ही शाम का इल्म। बस एक दूसरे के प्यार में सतह तक डूबे नज़र आते हैं। लेकिन अपने गुस्से के चलते एक दिन क़बीर सिंह अपनी प्रेयसी प्रीति को खो बैठते हैं। उसकी शादी किसी और से हो जाती हैं। लेकिन क़बीर सिंह का अपने दोस्त से एक सवाल कि क्या शादी में इतनी ताक़त होती है जो प्रीति अब लौटकर वापिस मेरे पास नहीं आ सकती। शादी के बंधन की मजबूती को दर्शाता है।

दूसरे हॉफ में क़बीर सिंह प्यार में नाकामी और प्रीति को खो देने के ग़म में ख़ुद को नशे में झोंक देते हैं। सिगरेट से शुरू हुआ नशा शराब तक पहुँचता है और शराब से शुरू हुआ नशा ड्रग्स तक। नशा जितना बढ़ता है क़बीर सिंह की मोहब्बत प्रीति से दिन ब दिन उतनी ही बढ़ती चली जाती है साथ ही प्रीति से बिछड़ने का ग़म भी, लेकिन यहाँ एक बात ग़ौर किये जाने की ये है कि क़बीर सिंह को प्रीति से बेतहाशा मोहब्बत है लेकिन किसी और से शारीरिक संबंध बनाने से क़बीर सिंह पीछे नहीं हटते। ये अलग बात है कि कुछ कारणवश संबंध बन नहीं पाते। क़बीर सिंह ज़िस्म की ज़रूरत के आगे बेबस नज़र आते है जहाँ ये ख़्याल जहन से छूट जाता है कि उनका दिल प्रीति के पास है। वैसे इस दौर का युवा बिल्कुल क़बीर सिंह की तरह दिल और ज़िस्म के बीच की जद्दोजहद में नहीं पड़ता। वो सही और ग़लत का चुनाव अपने विवेक से करता है। दुनिया जिसे ग़लत कहती वो उसे सही कहता है।

कुछ बरस पहले तक रोमांस दीवारों, पर्दों और हदों का मोहताज़ हुआ करता था। लेकिन आज का युवा क़बीर सिंह की तरह अपनी प्रेयसी के साथ रोमांस करते वक़्त ये अपने इर्द गिर्द ये नहीं देखता कि उसे कितनी नज़रें घूर रही हैं। वो क़बीर सिंह की तरह ये भी नहीं देखता कि चलती हुई मोटरसाइकिल पर चुम्बन लेते हुए गिर जाने से कुछ चोट ख़रोंच भी आ सकती है या दोनों की हड्डियाँ भी टूट सकती है वैसे मोटरसाइकिल पर चुम्बन लेने को लेकर कोई सख़्त क़ानून अब तक नहीं बना है। जब तक कोई क़ानून नहीं बन जाता प्रेमी प्रेयसी ऐसा कर सकते हैं।

क़बीर सिंह की दादी फ़िल्म में बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। यूँ तो उनकी कही हर एक बात सीधे दिल को छूती है लेकिन उनकी एक बात छाप छोड़ जाती है कि जब हम किसी से बेहद प्यार करते है और वो इंसान दुनिया छोड़कर हमेशा के लिए चला जाता है तो मन को समझाया जा सकता है कि अब वो इंसान इस दुनिया में नहीं है, वो कभी लौटकर नहीं आयेगा। लेकिन जिस इंसान से हम बेहद प्यार करते है वो ज़िंदा हो और हम उससे कभी मिल नहीं सकते, उसे पा नहीं सकते। इस स्थिति में इंसान ज़िंदा लाश समान है।

क़बीर सिंह फ़िल्म का अंत सुखद है जिसमें दोनों के परिवार उन्हें और उनके प्यार को स्वीकार कर लेते हैं। उसी तरह मेरा मानना है कि वैसे भी दुनिया थोड़े से समय के बाद कभी कुछ नहीं कहती। ये हम ही हैं जो क़यास लगाते हैं कि दुनिया हमारे बारे में क्या सोचती होगी। वैसे दुनिया के मंत्र का प्रभाव उन्हीं लोगों पर असर करता है जो उसे अपने ऊपर हावी होने देते हैं।

आज का युवा बिंदास जीना चाहता हैं। ज़िंदगी में बिना किसी की दख़लअंदाज़ी के। उड़ना चाहता है, गिरना चाहता है फिर संभलना चाहता है।

जिस तरह ठहरा हुआ पानी कभी शोर नहीं करता, जब तक कि उसमें कोई कंकर ना फ़ेंक दे। लोगों से उसकी भी यही अपेक्षा रहती है कि ख़ामोशी से बह रही ज़िंदगी के तालाब में कभी कोई कंकर ना फ़ेंके। अगर फिर भी कोई कंकर फ़ेंककर छींटे उड़ा भी दे तो उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। क्योंकि ज़माने में इश्क़ के परिंदो ने प्यार करने के तौर तरीक़े अब क़बीर सिंह की तरह बदल लिए हैं।

~ मनीष शर्मा

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Data source : Taran Adarsh