अग़र मैं सब कुछ सम़ाज़ के मुताबिख करता हूँ तो मैं एक समाज़िक प्राणी हूँ अगर मैंने सम़ाज़ के खिलाफ़ ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने का प्रयास किया या फ़िर अपनी ज़िदगीं को अपने सिद्धातों के अनुसार जीने का प्रयास किया तो मैं (समाज़िक प्राणी) सम़ाज़ से बाहर। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि क्या, मैं इसी सम़ाज़ का अंश हूँ जो मेरी हर खुशी में शरीक़ हैं, लेकिन ग़म़गीन अवस्था में क्यों मैं खुद तन्हा ही पाता हूँ कहाँ चला जाता हैं सम़ाज़ उस वक्त, जब़ मुझे सम़ाज़ की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती हैं, ढकोसला लग़ता हैं मुझे ये सम़ाज़ और इसके नियम, जब सम़ाज़ को मेरी परवाह नहीं तो मुझे भला क्यों परवाह हो इस सम़ाज़़ की।