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Thursday 27 August 2020

बुरे लोग एक सबक की तरह होते हैं।

बुरे लोग एक सबक की तरह होते हैं। इनके सबक ज़िंदगी भर याद रखे जाने चाहिए, क्यों कि हर क़दम हमारा वास्ता ज़्यादातर ऐसे ही लोगों से पड़ता आया है और पड़ता रहेगा। यही वे लोग हैं, जिनकी वज़ह से हम सही और ग़लत के बीच का फ़र्क समझ पाते हैं। रास्ते में आये पत्थर से ठोकर खाने के बाद ही ये पता चलता है कि नज़र ज़मीन पर होनी चाहिए। बुरे लोग रास्ते का पत्थर हैं।

हमारे आस पास बुरे लोगों की अधिकता के कुछ कुप्रभाव भी हैं जैसे कि इनसे मिले धोखे के बाद हम लोग अच्छे लोगों को भी शक़ की नज़र से देखने लग जाते हैं या यूँ कहें कि अच्छे लोगों पर भी एक बार में विश्वास नहीं कर पाते। किसी ज़रूरतमंद अच्छे इंसान की भी मदद नहीं कर पाते। बुरे लोग हमें विश्वास में लेकर हमारी मेहनत की गाढ़ी कमाई पर भी हाथ साफ़ कर देते हैं। इन्हीं लोगों की वज़ह से एक आम आदमी अपनी ज़रूरत से अधिक पैसा नहीं कमा पाता। आम आदमी बुरे लोगों से मिले धोखे को अपना मुक़द्दर समझ लेता है और ख़ुद को दिलासा देता है कि भगवान ने मेरी किस्मत में मुफ़लिसी ही लिखी है। वैसे एक बार धोखा ख़ाने के बाद कितना भी मजबूत आदमी हो आख़िरकार टूट ही जाता है। ये बुरे लोग हमें लक्ष्य से भटका देते हैं, मानसिक तनाव देते हैं। बुरे लोग स्वार्थ के परिचायक होते हैं।

वैसे, इतिहास गवाह है कि एक बुरे आदमी की बुराई की वज़ह से ही दूजा आदमी महान कहलाया है। जैसे राम - रावण, कृष्ण - कंस, प्रह्लाद - हिरणाकश्यप और भी बहुत सारे उदाहरण हैं। लेकिन अब महापुरुष जन्म नहीं लेते।

एक मासूम सा सवाल है मेरा, क्या ये धरती कभी स्वर्ग थी ? यदि थी तो क्या फिर कभी ये स्वर्ग बन पायेगी ?

~ मनीष शर्मा

Friday 21 August 2020

पृष्ठ संख्या सत्रह।

बरसों से अल सुबह पाँच बजे घर के बाहर एक दुपहिया वाहन M80 की आवाज़ आती रही है। M80 से उतरकर हॉकर दरवाज़े के नीचे से एक अख़बार सरकाते हैं। हल्की सी नींद जागती हैं, लेकिन फिर से सो जाता हूँ। वैसे लोग, सुबह की पहली चाय के साथ अख़बार पढ़ते हैं। मैं दोपहर में या संध्याकाल में अख़बार पढ़ता हूँ। संध्याकाल में इसलिए कि सुबह दफ़्तर जाने की जल्दबाज़ी रहती है। इसलिए देश दुनिया की ख़बरों से ज़्यादा ज़रूरी नौकरी प्रतीत होती है।

अख़बार हाथ में लेता हूँ तो उसे हर रोज़ खून से सना पाता हूँ। ख़बरों में से प्रेम लुप्त पाता हूँ। नफ़रत, खून खराबे की ख़बरों से ज़्यादा ख़ास वैसे कुछ होता नहीं है अख़बार में। फिर भी अख़बार के लगभग सारे पन्ने, सारी ख़बरें पढ़ता हूँ। लेकिन पृष्ठ संख्या सत्रह हमेशा छोड़ता आया हूँ। कभी समझने की कोशिश नहीं की अख़बार के इस पन्ने को। ऐसा सोचता आया हूँ कि इस पन्ने को पढ़ता कौन होगा। लेकिन अब, जब अपने भीतर झाँकता हूँ तो ख़ुद को ठगा पाता हूँ कि पूरे अख़बार के ये ही वो पृष्ट हैं, जिसे पढ़ा जाना चाहिए था। बाकी सब पृष्ट हम नहीं पढ़ेंगे तो भी हमें आस पास के लोगों से पता चल ही जाता है कि क्या घट रहा है देश, विदेश और दुनिया में।

अब मुद्दे पर आते हैं कि आख़िरकार क्या था अख़बार के पृष्ठ संख्या सत्रह में। जिसे मैंने हमेशा अनदेखा किया। पछतावा कि क्यों मैंने समय पर इसे समझने का प्रयास नहीं किया। 

अर्थव्यवस्था का सारा हाल बताते थे, ये पृष्ट। सोने-चाँदी के क्या भाव हैं। शेयर मार्केट की क्या चाल है, कौन से शेयर मुनाफ़ा देंगे, कौन से नुकसान। किस म्यूच्यूअल फण्ड में निवेश किया जाये, किसमें नहीं। लेकिन इन सभी से मैं हमेशा दूर रहा। अपने आप बाज़ार कभी समझ में नहीं आया और मैंने इसे कभी समझने का प्रयास किया नहीं। क्योंकि बहुत बड़ी आबादी आज भी इस बाज़ार को सट्टा बाज़ार कहती हैं।

दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली में ही दीमक लगा है। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें ग़ुलामी सिखाती है। इसमें आत्मनिर्भर, अमीर बनने का कोई नुस्खा नहीं छिपा है। वैसे कोई पूँजीपति चाहता भी नहीं है कि कोई दूजा उसके समक्ष खड़ा हो। इसीलिए अमीर बनने के रास्ते मुफ़्त में नहीं बताये जाते।

वैसे अमीर बनने का सफ़र बहुत मुश्किल होता है और इस सफ़र को अकेले ही तय करना पड़ता है। साथ ही संपति को भी पर्दे में रखा जाना ज़रूरी होता है क्योंकि... चलिए कुछ बिन कहे, बिन लिखे, समझा जाये तो बेहतर होगा।

जिस तरह बुरी आदतें हमारे भीतर स्वतः उतरती चली जाती हैं। उसी तरह अज्ञानियों तक पहुँचना बहुत सरल होता है। हम उन तक, वे हम तक बड़ी सरलता से पहुँच जाते हैं। लेकिन हमें उन लोगों तक स्वयं ही पहुँचना होता है जिन्होंने अपनी मेहनत के बूते आर्थिक आज़ादी हासिल की।

ख़ैर, बाज़ार को समझें बिना इसमें उतर आना ज़ोखिम से भरा है। किसी भी तरह का निवेश एक जटिल प्रक्रिया है। जानकारी के अभाव में संभव है कि जीवन भर की सारी पूँजी एक ही पल में वाष्प की तरह उड़ जाये।

~ मनीष शर्मा

Sunday 16 August 2020

दिल की आख़िरी मंज़िल प्यार और पैसा हो।

#RetireYoungRetireRich रॉबर्ट कियोसाकि की इस पुस्तक से प्रेरित होकर के किसी ने जीवन का ताना बाना बुना या नहीं, नहीं पता। मगर एक बात सत्य है कि जिसने कम उम्र में ही अपनी ज़िंदगी में अधिक ख़्याति प्राप्त कर उच्चतम मुक़ाम हासिल कर लिया हो या अपनी आने वाली पीढ़ियों का भी भविष्य अधिक धन कमाकर सुरक्षित कर लिया हो, वो बहुत ज़ल्दी रिटायरमेंट ले लेते हैं। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते, उनके लिए रिटायरमेंट आख़िरी साँस तक नहीं आता। वैसे जिसने ज़िंदगी को क़रीब से जाना और बड़ा लक्ष्य बनाकर कड़ी मेहनत की, उसने ज़िंदगी भर मज़े लिये, जिसने नहीं, उसके मज़े ज़िंदगी ने, ज़िंदगी भर लिये।

दिल की सुनो, मगर याद रहे दिल की आख़िरी मंज़िल प्यार और पैसा हो।

~ मनीष शर्मा

Monday 15 June 2020

सुशांत सिंह राजपूत हमेशा याद रहेंगे।

आत्महत्या करना ग़लत है, बहुत ग़लत। किसी के आत्महत्या किये जाने के बाद हम ये बात कितनी सरलता से कह देते हैं। ऐसा नहीं हैं कि मेरे इस आलेख में, मैं आत्महत्या करने वालों का समर्थन कर रहा हूँ। मैं आत्महत्या जैसे कृत्य की निंदा करता हूँ। लेकिन हमें आत्मीयता रखते हुए हर व्यक्ति के साथ शालीनता और अपनत्व का व्यवहार करना चाहिए। जिससे आत्महत्यायें सरीक़ी घटनाओं पर अंकुश लग सके।

आज तक ना जाने कितने लोगों ने आत्महत्यायें की होगी। लेकिन ना हमने कभी आत्महत्या करने वाले की मनोस्थिति जानने का प्रयास किया। ना ही आत्महत्या करने के पीछे के कारणों को जानने की ज़हमत उठायी। यहाँ तक कि भविष्य में कभी कोई आत्महत्या ना करे इस तरह के एहतियातन क़दम भी नहीं उठाये। उठाते भी तो कैसे हम परिणामों के बाद जागते हैं। परिणाम से पहले हमें सब कुछ सामान्य नज़र आता है। क्या आत्महत्या एक ही पल में लिए जाने वाला फ़ैसला है ? शायद नहीं ! बहुत टूटकर बिखरता होगा वो इंसान, जो आत्महत्या करता है। हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा। रोशनी की कोई किरण कहीं से भी नज़र नहीं आती दिखाई पड़ती होगी।

आत्महत्या करने के तरीक़े अलग अलग हो सकते हैं। लेकिन कारण एक ही है मानसिक तनाव। ऐसा तनाव जिसमें व्यक्ति को लगता है कि अब इस दुनिया में उसकी बात सुनने, समझने वाला कोई नहीं बचा। वैसे भी इस भागदौड़ भरी दुनिया में किसे फ़ुरसत है किसी की बात सुनने की। हर कोई एक ऐसी दौड़ में दौड़ रहा है जिसकी मंज़िल कहाँ है, कोई नहीं जानता।

ज़्यादातर मामलों में व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का कमज़ोर होना भी आत्महत्या का कारण बनती हैं। आत्महत्या को बढ़ावा देने में दकियानूसी समाज भी ज़िम्मेदार हैं। समाज की रिवायतें, हमेशा इंसान की सरलता पर हावी रही हैं। क़दम- क़दम पर बेड़ियाँ बाँधता है समाज। अगर कोई इन बंधनों को तोड़ने के प्रयास करता है तो उसे हज़ारों तोहमतें लगाकर ज़लील किया जाता हैं।

हमारे जीने के सारे अधिकार, हमारे पास नहीं, समाज के पास सुरक्षित हैं।

यहाँ मुझे, मेरा लिखा एक शेर याद आ रहा है। "जीवन सरलता का मज़मा है, इसे जटिलता से मत जियो।"

वैसे आज के दौर में किस पर यक़ीन किया जाये, किस पर नहीं। ये भी एक बहुत बड़ी समस्या हैं। क्योंकि जो हमराज़ होते है, वे ही किसी अलगाव के बाद हमारे सारे राज़ से पर्दाफ़ाश करते हैं।

सुशांत सिंह राजपूत द्वारा की गई आत्महत्या इस बात को और पुख़्ता करती है कि बाहर से खुशमिज़ाज इंसान, भीतर से कितना मायूस, दुःखी हो सकता है। इस घटना के बाद प्रतीत होता है कि ग्लैमर की दुनिया कितनी खोखली है, जिसे देखकर लगता है कि सभी झूठी मुस्कानें लिए जी रहे हैं। ग्लैमर की दुनिया वाले ज़्यादातर लोग दोहरा चरित्र जीते हैं और दोहरा चरित्र एक नया एक दिन व्यक्ति को अवसादग्रस्त बना देता है।

उम्मीद करता हूँ कि इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगे। सभी का व्यवहार, सभी के प्रति सरल और सहज हो क्योंकि हम कौन से सदियाँ जीने आये हैं। जो एक दूजे से जलते हैं। हाड़ माँस के पुतले हैं, एक दिन मिट्टी में मिल जाना तय है, फिर भी जिसे देखो सीने में एक कुफ़्र (आग) लिए घूम रहा है।

एक अच्छे, सरल व्यक्तित्व वाले कलाकार को आज हमने खो दिया। जिसने बहुत कम उम्र में अपनी मेहनत के बूते एक अच्छा मुक़ाम हासिल किया। भगवान आपकी दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें। आप हमेशा याद रहेंगे। #SushantSinghRajput

~ मनीष शर्मा


Monday 11 May 2020

मानव जीवन बनाम अर्थव्यवस्था

दो अलग अलग संस्कृतियाँ, एक पाश्चात्य दूजी भारतीय। एक संस्कृति रिश्तों और मानव जीवन को महत्व देती है तो दूसरी संस्कृति अर्थव्यवस्था को। ज़ाहिर है कि इन दोनों संस्कृतियों में रहने वाले लोगों की सोच भी अपनी अपनी संकृति के मुताबिक़ होगी।

अब मुद्दे पर आते हैं। चाईना से कोरोना फ़ैलना शुरू हुआ। धीरे धीरे सभी देशों में फ़ैल गया। बात अमेरिका और भारत की करते हैं। अमेरिका ने लॉकडाऊन नहीं किया क्यों कि शायद पाश्चात्य संस्कृति में भावनाओं को ज़्यादा जगह नहीं मिलती। वहाँ की सरकार का मानना है कि अर्थव्यवस्था सतत चलती रहनी चाहिए, चाहे लोग क्यों ना मरे। वहाँ की सरकार पहले से ही लगभग इतने लोग कोरोना से मरेंगे के पूर्वानुमान लगा लेती है। वहीं भारत में पहले दिन जनता कर्फ़्यू लगता है। इसके एक दिन बाद पूरे देश में लॉकडाऊन हो जाता हैं। जो जहाँ हैं उसे वहीं रहने का फ़रमान सुना दिया जाता हैं। रेल, बस और हवाई यातायात एकाएक रोक दिया जाता है। हमारे देश में आज से पहले ऐसी स्थिति कभी नहीं हुई। हमारी संस्कृति में मानव जीवन महत्व रखता है। हमारा और हमारी सरकार का मानना है कि जिस देश में जनता ही नहीं बचेगी तो अर्थव्यवस्था किसके काम आयेगी। जनता कुछ दिनों के इस लॉकडाऊन का पूरी तरह से पालन करती हैं कि दूसरे तरफ़ धीरे धीरे कुछ सेवाओं में छूट देते हुए तीसरे लॉकडाऊन की घोषणा कर दी जाती हैं। जनता दो लॉकडाऊन तक तो ख़ुद को संभालती है लेकिन तीसरे लॉकडाऊन तक पहुँचते पहुँचते सब्र का बाँध टूटने लगता है। जनता के सामने दो विकल्प बचते हैं या तो कोरोना से मर जायें या भूख से। भूख से मर जाना, कोरोना से मर जाने भी ज़्यादा बेरहम लगता है इसीलिये जनता को पहला विकल्प ज़्यादा सरल लगता है। वहीं धीरे धीरे सरकार सब कुछ सामान्य करने में जुट जाती हैं। कुछ व्यवसायों में ढ़ील दे दी जाती हैं। आंशिक कर्फ़्यू रखा जाता है।

वहीं इसी दरम्यान कोटा पढ़ाई करने गए छात्रों को बसों द्वारा उनके राज्यों तक पहुँचाया जाता हैं। क्योंकि वे पूँजीपतियों की सन्तान हैं।। लेकिन दूसरे राज्यों में कमाने गए मजदूर अपने घरों के लिए अपने परिवार के साथ मीलों का सफ़र भूखे प्यासे पैदल ही तय करने पर मजबूर होते हैं।

किसी भी देश की जनता को सरकारों द्वारा कभी भी एक जैसा व्यवहार नहीं मिलता।

"मेरा मानना है कि ग़रीब और अमीर के बीच की दीवार कलयुग की समाप्ति से पहले कभी नहीं ढहेगी।"

तीसरे लॉकडाऊन के मध्य में सरकार कुछ मजदूरों को उनके राज्यों तक पहुँचाने में लिए रेलों की व्यवस्था करती है। लेकिन इस व्यवस्था से सभी मजदूर अपने घर तक पहुँच सके, सरकार के लिए ये भी आसान नहीं। एक बड़ी चुनौती है।

लेकिन तीसरे लॉकडाऊन के ख़त्म होने से पहले जनता के सुर बदलने लगते हैं। जनता कहती है कि मजदूरों को अगर उनके राज्यों तक लाया जायेगा तो कोरोना का ख़तरा बहुत ज़्यादा बढ़ जायेगा। अगर सरकार को मजदूरों को लाना ही था तो ये काम पहले लॉकडाऊन से पहले ही कर लिया जाता तो बेहतर होता।

हमारे विचार भी हमारी तरह दोगले हो चुके हैं, बहरूपिये हो चुके हैं। हम तत्कालीन परिस्थितियों को जेहन को में रखते हुए सोचते हैं ना कि दूरग़ामी।

सोचिये अगर सरकार लॉकडाऊन नहीं करती तो शायद अमेरिका से बुरे हालात हमारे देश के हो सकते थे। लॉकडाऊन नहीं करती तो जनता कहती हमने किस सरकार का चुनाव कर लिया जो जनता को नहीं, अर्थव्यवस्था को बचाना चाहती है। इन सबके बीच शायद सरकार भी नहीं बचती। लेकिन सरकार ने जनता को बचाने के पूरे प्रयास किये। प्रश्न ये खड़ा होता है कि क्या मोदी ने जो किया वो सही फ़ैसला था या ट्रम्प ने जो किया वो सही फ़ैसला था।

कोरोना से लड़ाई बहुत लंबी चलेगी। अब हमें हमारी समझदारी ही बचा सकती है।

~ मनीष शर्मा

Tuesday 31 March 2020

जीवन संघर्ष।

विश्व इतिहास में कोरोना से भयावह मंज़र शायद ही किसी ने कभी सुना हो या देखा हो। अकाल मृत्यु का ग्रास है कोरोना। जिसमें ज़रा सी भी लापरवाही ना जाने कितने लोगों की ज़िंदगी लील सकती हैं। विकसित देशों की सरकारें जब कोरोना के सामने हाथ खड़े कर चुकी हैं तो हम कोरोना पर विजय लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ कैसे कर पायेंगे। ये एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब घर में क़ैद रहकर ही दिया जा सकता है। सरकार चाहती है हम लोग घर मे रहे ताकि ज़िंदा रह सकें। हमें सरकार की बात माननी चाहिए क्यों कि सवाल ज़िंदगी का है।

आर्थिक रूप से सबसे ताक़तवर, सर्वश्रेष्ठ देश होने की ये कैसी होड़ लगी कि आज मानवता ही ख़तरे में पड़ गयी। कल का सूरज कौन देखेगा, कौन नहीं, ये भविष्य की गर्त में छिपा है। मैं हमेशा से कहता आया हूँ कि हाड़ माँस के पुतले को ख़त्म करने के लिए बारूद इकट्ठा ना करें। इस पुतले को उम्र के सत्तर साल तक महफ़ूज़ रख पाने के साधन जोड़े, क्योंकि हम कौन से यहाँ अमर हो के सदियाँ जीने आयें हैं। अस्पताल बनवाने की बजाय हमने मोटे दामों पर हमेशा बारूद ख़रीदा। स्वास्थ्य पर धन खर्च करने की बजाय हमने सैन्य व्यवस्थाओं को दुरुस्त रखने के धन खर्च किया। यहाँ मैं अपने ही कथन का खंडन भी करता हूँ कि तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि हम अपने आने वाले जीवन को कैसे जीयेंगे। हमें बारूद इसलिए जोड़ना पड़ा कि पड़ौसी देशों का हम पर ख़तरा निरंतर बना रहता हैं। पड़ौसी, पड़ौसी का दुश्मन।

इंसान को ज़िंदा रहने के लिए प्रेम चाहिए, हमने नफ़रतों के बाज़ार खोल दिये। कहीं नफ़रत कम ना पड़ जाये तो हमने उसे मज़बूत रखने के लिए धर्म और मज़हब की दुकानें भी लगा दी।

विश्व एक क़ैदखाने में तब्दील हो चुका है। एक ऐसी क़ैद जिसमें धन सम्पन्न लोग अपना समय अच्छे से व्यतीत कर रहे हैं क्योंकि उनके पास वे सभी सुख सुविधाएं हैं जिनके बूते वे कईं महीनों तक ज़िंदा रह सकते हैं। लेकिन वे लोग जो सुबह कमाने के लिए निकलते है शाम को खाते है। वे संघर्ष के बहुत बुरे दौर से गुज़र रहे हैं। लेकिन अभी सवाल ज़िंदा रहने का है रोज़ी रोटी से भी बड़ा सवाल है ज़िंदा रहना। वैसे ग़रीबी से बड़ी कोई बीमारी नहीं। ये बीमारी रोज़ रोज़ थोड़ा थोड़ा मारती है। वैसे अमूमन देखा गया है कि धरती पर जब भी कोई माहमारी फ़ैली है लाखों लोगों की बलि चढ़ी हैं। लेकिन इस बार की माहमारी में भूख से कोई ना मरे ये हमारा परम दायित्व होना चाहिए। सच्ची सेवा मानव सेवा, बाक़ी सब तो ढोंग है, छलावा है।

उम्मीद की जा सकती है कुछ महीनों के बाद सब कुछ पहले की भांति सामान्य हो जायेगा। ज़िंदगी की गाड़ी पटरियों पर दौड़ने लगेंगी। लेकिन तब तक फ़ासलों की खाई बहुत गहरी हो चुकी होगी। कोई किसी के क़रीब आने से भी डरेगा। लोग अपने स्वार्थ के चलते चाहते थे कि उनकी दुनिया सीमित हो। वे फले फूले, भले दुनिया भाड़ में ही क्यों ना जाये। कोरोना ने इतना सीमित कर दिया कि अब कोई किसी से गले ना मिलेगा तपाक से।

वैसे प्रधानमंत्री जी के लॉक डाऊन किये जाने के आदेश के बाद से ही देश की लगभग सारी समस्याएं ख़त्म हो चुकी हैं। इससे ये साबित होता है कि ढेरों समस्याओं को हम बेवज़ह जन्म देते हैं वास्तविकता में समस्याएं कभी इतनी जटिल नहीं होती हैं। हम विकास या प्रगति करने की बजाय समस्याओं को द्रोपदी की चीर की तरह खींचते रहते हैं।

एक निवेदन भारत सरकार से कि जिस तरह सरकार ने सेना को अस्त्र शस्त्र देकर सीमा पर मुस्तैद किया है उसी तरह हमारे देश के डॉक्टर, नर्स, लेबोरेटरी तकनीशियन, तकनीकी एवं नॉन तकनीकी वर्ग के सभी कार्मिक, पुलिस, सफ़ाईकर्मियों एवं वे सभी लोग को अपने घर से बाहर केवल इसलिए हैं कि देश में घर के भीतर बैठे लोग सुरक्षित रह सकें। ऐसे सभी लोगों को कोरोनो से बचाव से संबंधित सभी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट किट उपलब्ध करावें। ताकि वे अपने कार्यों को बेहतर तरीक़े से संपादित कर सकें।

तस्वीर में जो व्यक्ति दिखाई दे रहे हैं। इनकी सहमति के पश्चात ही इनकी ये तस्वीर खींची गई है। कोरोना से बचाव के लिए इन्होंने नॉन वोवन केरी बैग लगा रखा है।

मिलकर बोये थे सब ने बीज़ काँटों के
वृक्ष बनकर वे आज भला फूल दें कैसे ?
#Corona #Covid19

#झूठ #धोखा #लालच #स्वार्थ #अनीति #पाप #कुकर्म #हिंसा #जीवहत्या

~ मनीष शर्मा