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Sunday 16 October 2022

सत्रह वर्ष पहले।

रोज़गार हमेशा से सभी के लिए चिंता का विषय रहा है। तक़रीबन आज से सत्रह वर्ष पहले, मैं भी रोज़गार की तलाश में दर बदर बिखरे हुए लक्ष्य के साथ कईं बार (लोको पायलट की नौकरी के सपने) के साथ लंबे सफ़र, भीड़, हिलने डुलने की भी जगह नहीं और जैसे तैसे दी गयी परीक्षा। उफ़्फ़!!! बिना लक्ष्य का सफ़र इसलिए कि मैंने ख़ुद से ज़्यादा दुनिया की सुनी और दुनिया सिर्फ़ सुनाती है और ज़्यादातर लोगों को सुननी ही पड़ती है। दुनिया में बहुत कम लोग हैं जो सही रास्ता बताते हैं। मुझे ऐसे लोग अब जाकर क़िताबों में मिले हैं। जो रोशनी की किरण दिखाते हैं। इन क़िताबों के ज़्यादातर लेखक विदेशी हैं। वैसे दुनिया के कारण "जो ना होना था मुझे, वो मुझे होना पड़ा।"


उत्तर प्रदेश PET 2022 की इन तस्वीरों ने मेरे अतीत की कुछ यादों को कुरेदा है। हालाँकि मेरे पास रेल में बैठने के लिए सीट होती थी। पूरी सीट पर छः लोग, जब कि ठीक से चार लोग ही बैठ सकते थे। इनके अलावा भी बहुत सारी परेशानियाँ झेलनी पड़ती है जिनका ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी नहीं क्यों कि हर आम आदमी के जीवन के संघर्ष के साथ ये परेशानियाँ जुड़ी होती हैं। वैसे उस वक्त आबादी कम होने के कारण रेल में भीड़ आज से थोड़ी कम होती थी। मेरी नज़र में ज़िंदगी को समझने का सबसे अच्छा तरीक़ा है रेल। रेल इसलिये कि इसमें हर वर्ग के आदमी के लिए कोच है। सामान्य, स्लीपर, 3rd AC, 2nd AC और 1st AC जिसके जैब में जितना पैसा है वो वैसे कोच में सफ़र कर सकता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शाही रेल में सफ़र करते हैं। अगर बहुत कम पैसे हैं तो वे सामान्य कोच की किसी सीट, फ़र्श पर बैठकर या खड़े - खड़े, यहाँ तक कि दरवाज़े पर बाहर की तरफ़ लटक कर भी सफ़र करते हैं। दरवाज़े के बाहर लटककर सफ़र करना बहुत ख़तरनाक होता है, इतना ख़तरनाक़ की पलक झपकते ही जान जा सकती है। ये सब कुछ जानने के बाद भी मजबूरियाँ ही आदमी से ऐसा करवाती हैं।


जिसके पास जितने ज़्यादा पैसे हैं, वो ज़िंदगी के उतने ही ज़्यादा मज़े ले सकता है। कुछ लोग हमेशा उदाहरण देते है कि पैसा ख़ुशी का पैमाना नहीं। मान लिया कि शत प्रतिशत ख़ुशी नहीं दे सकता पैसा, लेकिन बिना पैसे के भी कोई ख़ुश रहा हो या जीवन यापन कर पाया हो तो बतायें। साधु संतों को यहाँ नहीं गिने क्यों कि वे मोह माया से मुक्त हैं। पैसा आदमी के जीवन को सरल, सुगम और सुलभ कर देने की ताकत रखता है। आदमी को मजबूत पैसे का प्रभाव बनाता है और मजबूर पैसे का अभाव। पैसे को बुरा कहकर इसे हाथ का मेल कहने वाले लोग भी मुट्ठी भींचकर रखते हैं, क्योंकि कहीं उनके हाथ का मेल निकल ना जाये। मैंने अब तक कोई ऐसा आदमी नहीं देखा जिसकी पैसे के बिना सुबह हुई हो या शब ढली हो।


मैं हमेशा से जनसंख्या वृद्धि का विरोध करता आया हूँ और जनसंख्या नियंत्रण की पैरवी। जनसंख्या वृद्धि की रफ़्तार अगर यही रही तो जनसंख्या विस्फोट होना तय है। स्वार्थ की पराकाष्ठा तक विस्फोट। लोग जनसंख्या नियंत्रण पर दबे होंठ ही बात करते हैं क्योंकि हमारे समाज की इस विषय पर सहज स्वीकृति नहीं है। एड्स काउंसलर होने के नाते सरकार ने मुझ पर ये ज़िम्मेदारी सौंप रखी है कि मैं लोगों को जागरूक करूँ। इसलिए मैं अब समाज के इस दायरे से बाहर हूँ।


मैं एक कहावत सुनता आ रहा हूँ। पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय। इस कहावत का मतलब है कि अगर बेटा सपूत है तो वो ख़ुद धन का निर्माण कर लेगा और अगर वो कपूत है तो पूर्वजों के कमाए धन को भी गँवा देगा। मैं इस कहावत से बिल्कुल भी सरोकार नहीं रखता। पूत सपूत हो या कपूत अपने बच्चे के लिए धन का निर्माण करना हर एक पिता की ज़िम्मेदारी है। कपूत हुआ तो खो देगा, खो देने दो, खो देना कपूत का कर्म, लेकिन सपूत में वो क़ाबिलियत नहीं हुई जिससे वो धन का निर्माण कर सके या सपूत के गंभीर रोगी होने की स्थिति में सपूत का क्या दोष जब कि सपूत अच्छा और बहुत अच्छी आदतों का धनी है?


मैं ठाकुर जी और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इतना कुछ (पूँजी और वित्तीय ज्ञान) छोड़कर जाना चाहता हूँ कि वे किसी पर आश्रित ना हों। वे अपने जन्म लेने के उद्देश्य को समझते हुए जीवन के हर क्षण का लुत्फ़ ले सकें। इतने सामर्थ्यवान हों कि अपनी आवश्यकताओं के साथ किसी ज़रूरतमंद की भी मदद कर सकें।


~ मनीष शर्मा


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Wednesday 14 September 2022

हिंदी दिवस।

मुझे तीन भाषाएं बहुत पसंद है। हिंदी,अंग्रेज़ी और उर्दू। वैसे अंग्रेज़ी भाषा और उर्दू भाषा की वर्णमाला से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ लेकिन हिंदी भाषा इन दो भाषाओं से थोड़ी बेहतर जानता हूँ। फ़िलहाल ठाकुर जी की तीसरी कक्षा की किताब से ं(अनुस्वार) ँ(अनुनासिक) और ऑ(आगत स्वर) फिर से सीखने को मिले। मैं इन नासिक्य व्यंजनों का प्रयोग तो करना जानता था लेकिन इन्हें क्या कहते हैं, ये मैं भूल गया था। मैं भी आम बोलचाल की भाषा में बिंदु, चंद्रबिंदु ही कहता था।

मेरा मानना है कि जिस इंसान को अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू में महारथ हासिल है, वो Confidence, अच्छे व्यवहार और तलफ़्फ़ुज़ की जीती जागती मिसाल है।


हिंदी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 💐


~ मनीष शर्मा

Sunday 21 August 2022

ठाकुर जी के कुछ मासूम सवाल।

दो सप्ताह पहले मैं और ठाकुर जी पलंग पर पसरकर घर पर सिनेमा देख रहे थे। शायद घर पर पसरकर सिनेमा देखने की ही उपज रहे होंगे आधुनिक सिनेमा।


यथासंभव है कि पश्चिमी देशों में थोड़े दिन बाद सिनेमा से कुर्सियाँ गायब हो जाये और पलंग ही दिखाई दे। वैसे भारत की बढ़ती आबादी अधिकतर सिनेमा में पलंग नहीं लगने देगी।


ख़ैर हम जो फ़िल्म देख रहे थे उसका नाम था "भाग मिल्खा भाग"। मिल्खा सिंह का जुनून उन्हें सर्वश्रेष्ठ धावक बना देता है। मैं फ़िल्म देखने के साथ-साथ ठाकुर जी के अवचेतन मन में मिल्खा सिंह के जुनून को भरने की कोशिश कर रहा था। मैं ठाकुर जी को समझा रहा था कि मिल्खा सिंह के पास वे सुविधायें नहीं थीं, जो आज कल के बच्चों के पास है, आपके पास है। आप भी मेहनत करके मिल्खा सिंह जैसे बनो। मिल्खा सिंह जैसे मतलब, जो आपको पसंद हो, वो काम करो। साथ ही ख़्याल रहे कि वो पसंद का काम क़ामयाबी दे, ख़ुशी दे। ऐसे किसी लक्ष्य को हासिल करने के पीछे लग जाओ जिससे ज़िंदगी लुत्फ़ देने लगे।


लेकिन एकाएक एक दृश्य दिखाई देता है जिसमें मिल्खा सिंह क़ामयाबी के शिखर पर पहुँच जाने के बाद एक दौड़ से पहले मदिरा का सेवन करते हुए नज़र आते हैं। 


ठाकुर जी का मासूम सा सवाल, पापा जी आप कहते हो कि शराब बुरी चीज़ है और किसी भी बुरी आदतों के साथ बड़ा आदमी नहीं बना जा सकता तो फिर क़ामयाब होने से पहले इनका लक्ष्य सिर्फ़ मैदान में जीत रहा लेकिन क़ामयाबी हासिल करने के बाद ये शराब क्यों पीने लगे ? मैं अपने ज़वाब को चालाकी से हेरफ़ेर (manipulate) करने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मैं सवालों के ज़वाब को हेराफ़ेरी करने में कुशल नहीं हूँ तो ज़्यादा देर तक ठाकुर जी ने मुझे जवाबों को हेरफ़ेर नहीं करने दिया इसके तुरंत बाद ठाकुर जी को बातों में उलझाने से बेहतर मुझे सही-सही ये बताना सहज लगा कि शराब बहुत बुरी चीज़ है इसके सेवन से आदमी को कोई फ़ायदा नहीं होता, बल्कि नुक़सान होता है। जैसे सेहत का नुक़सान, पैसों का नुक़सान। अब दूसरा सवाल ठाकुर जी का, कि अगर ये नुक़सान हैं तो फिर मेरे ननिहाल गुजरात में एक भी शराब की दुकान नहीं है लेकिन राजस्थान में आते ही हर दो से तीन किलोमीटर की दूरी पर अंग्रेज़ी शराब/देशी शराब की दुकान नज़र आती है और उन पर लोगों की भीड़ दिखाई पड़ती है ? यहाँ तक कि कोरोना के वक़्त लॉकडाऊन में भी शराब की दुकानों पर भारी भीड़ दिखाई दी थी ?


ज़वाब में मैंने ठाकुर जी से कहा, क्या मुझे कभी शराब पीते देखा है ? चाय पीते देखा है ? सुपारी या गुटखा खाते देखा है ? ठाकुर जी जवाब में, नहीं पापा जी। तो फिर ये मान लो कि ये सब फ़िलहाल के लिए बहुत बुरी चीजें हैं। मैं आपके बहुत सारे सवालों के ज़वाब आपके अठारह वर्ष पूरे होने पर दूँगा। आपका हर एक सवाल मुझ पर ऋण है, ठाकुर जी।


ठाकुर जी, आप ऐसे तमाम सवालों के ज़वाब मुझसे पूछना, ख़ुद से पूछना, गुरु से पूछना या फिर किताबों में ढूँढना। बस, दुनिया से मत पूछना। क्योंकि दुनिया सारे सवालों के ज़वाब हेरफ़ेर (manipulate) करके देगी। क्योंकि दुनिया दो भागों में बटी है पहले वाले भाग के लोग आपको आसानी से नहीं मिलेंगे और मिल भी जायेंगे तो अहंकारवश कुछ नहीं बताएंगे। और दूसरे भाग वाले लोग आपको सहजता से मिलेंगे, मिलकर पथभ्रष्ट कर देने की पूरी संभावना बनी रहेगी। और किसी पर यक़ीन करना भी हो तो क़िताबों और अपने गुरुओं पर करना, वे आपको हमेशा आईना दिखायेंगे। क़िताबों में दुनिया के तमाम बेहतरीन लोग छपते हैं। पाठ्यक्रम की क़िताबों के बाद मैं आपके हाथ में वित्तीय आज़ादी हासिल किए जाने की क़िताबें देखना चाहूँगा।


मिल्खा सिंह पर बनी फ़िल्म कुछ और सवाल छोड़ती है। फ़िल्म में मिल्खा सिंह एक विदेशी लड़की के प्रेम में पड़ जाते है, प्रेम में पड़ने के बाद उनकी दौड़ का प्रदर्शन प्रभावित होता है वे लक्ष्य से भटक जाते हैं। लेकिन ख़ुद को संभालते हुए वापिस लक्ष्य प्राप्ति की तरफ़ अग्रसर हो जाते हैं। वैसे अकस्मात मिलने वाली चीज़ें मन को लुभाती है, साथ ही वे चीज़ें भटकाव भी लाती है। मिल्खा सिंह के प्रेमवश भटकाव के बारे में भी ठाकुर जी ने सवाल किए। मैंने ज़वाब में कहा हमारे लक्ष्य के बीच जो भी आता है वो हमारा दुश्मन होता है। इसका मतलब ये नहीं कि जीवन में प्रेम ना हो। जीवन का अर्थ ही प्रेम है।


भाग मिल्खा भाग अच्छी फ़िल्म है। मिल्खा सिंह का संघर्ष आदमी में जोश और जुनून भरता है।


~ मनीष शर्मा 


Tuesday 12 July 2022

ना हथाई, ना बंतळ।

ना हथाई, ना बंतळ।


ये ज़रूरी नहीं कि हर वो आदमी जो चाय की थड़ी या पान की दुकान पर मिले, वो चाय पीता हो, पान सुपारी खाता हो या सिगरेट फूँकता हो।


मैंने कभी किसी चाय की थड़ी या पान की दुकान पर बैठकर चाय पीते हुए या पान सुपारी खाते हुए गपशप (ठेठ मारवाड़ी में दो शब्द हैं हथाई या बंतळ) नहीं की।


इन दिनों ठाकुर जी जिस स्कूल में जा रहे है वो शहर से थोड़ी दूर है। स्कूल, स्कूल बस में जाना पड़ता है। ठाकुर जी को स्कूल बस में बैठाने का ठिकाना, एक दवाई की दुकान के बाहर है। लेकिन स्कूल से वापसी एक चाय की थड़ी के बाहर होती है। जहाँ थोड़ी धूप, थोड़ी छाँव मुझ पर पड़ती रहती है।


मैं ठाकुर जी की स्कूल बस आने से ठीक दस मिनट पहले उस चाय की थड़ी के बाहर खड़ा होकर ठाकुर जी के स्कूल से लौट आने का इंतज़ार करता हूँ। तब तक वहाँ से गुज़रने वाला मेरी जान पहचान का हर एक शक़्स मुझसे पूछता है, यहाँ कैसे खड़े हो ? पूछने वालों की तादाद इसलिए भी ज़्यादा होती है कि मैं जिस सरकारी अस्पताल में नौकरी करता हूँ वहाँ से ज़्यादा दूरी नहीं है चाय की थड़ी की। लोगों का पूछना लाज़मी भी है क्योंकि इससे पहले मुझे कभी किसी आदमी ने चाय की थड़ी या पान की दुकान पर नहीं देखा।


मेरी ज़िंदगी का अब बस एक ही मक़सद है आप अच्छे और क़ाबिल इंसान बनो ठाकुर जी। ख़ूब पढ़ो, बड़े आदमी बनो। मैं आपके लिए ख़ुद को फ़ना करने के लिए तैयार हूँ।



Thursday 12 May 2022

प्रेम शाश्वत रहेगा...

मानव के चरित्र का चित्रण केवल मध्यम वर्गीय लोग ही करते हैं और किसी की निजी ज़िंदगी में दख़ल भी ज़्यादातर मध्यम वर्गीय लोग ही देते हैं। उच्च वर्गीय लोगों की नज़र आर्थिक शिखर पर होती है, वे हमेशा, वो काम करते हैं जो उन्हें ख़ुशी दे और सफ़ल बनाये। साथ ही वे केवल अपना जीवन जीते हैं, किसी और का नहीं। इन्हें इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन इनके बारे में क्या सोचता है।

वहीं बात की जाए अगर निम्न वर्ग की, तो वे अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में इतना व्यस्त रहते हैं कि कब दिन डूबे, कब रात ढले इसका इन्हें आभास नहीं।

ज़्यादातर लोग मध्यमवर्गीय सोच वाले हैं। ये वे लोग हैं जो आदमी की परिधि और दायरे तय करते हैं। ये वर्ग आदमी को ये सिखाता हैं कि ख़ुद की ख़ुशी का गला घोंटो और सबके बारे में सोचो और वो सब जिनके बारे में सोचना है, वे, वे लोग है जो दूसरों की ज़िंदगी में आग लगा के तमाशा देखते हैं और ख़ुद वो करते हैं जो उन्हें ठीक लगता है।

मैं हमेशा से देखता आया हूँ कि किसी भी व्यक्ति को अगर नीचा दिखाना है तो उसके चरित्र पर कीचड़ उछाल दो। यहाँ व्यक्ति से तात्पर्य स्त्री और पुरूष दोनों समझा जावें। इस कीचड़ के दाग इतने गहरे होते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन दागों को नहीं मिटा पाती।

आदमी ने कितनी आसानी से (जैविक) बायोलॉजिकल ज़रूरत को चरित्र से जोड़ दिया और उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करने लगा। एक ऐसा हथियार जो आदमी को हर रोज़ मारता है। इससे बड़ा हथियार ना कभी बना है और ना ही कभी बनेगा।

एक दिन वैसे भी सभी को मिट्टी हो जाना हैं। ना धर्म की दीवारें, ना मज़हब का पर्दा, ना कोई सामाजिक परिधि। हर बेड़ी से मुक्त। लेकिन उस मुक्ति से पहले की जकड़न। उफ़्फ़...।

वैसे हमारे लिए मायने ये रखता है कि आदमी अपने जीवन में कितना ख़ुश रहता है, ना कि ये, कि लोगों ने हमारे बारे में क्या राय बना रखी है। इसलिए जियें और जीने दें, ठीक वैसे जैसा आदमी जीना चाहता है। यहाँ आदमी के चाहने का मतलब किसी को शारीरिक या मानसिक क्षति ना पहुँचे, वैसे। क्यों कि आदमी की चाहत के कईं रूप हैं। आजकल आदमी ने प्रेम की बजाय नफ़रत को चुन लिया है। हम रहेंगे या नहीं रहेंगे लेकिन प्रेम शाश्वत रहेगा...

~ मनीष शर्मा


Sunday 27 March 2022

ना मैं सही, ना तू ग़लत, छोड़ तकरार, कर उल्फ़त।

सब कारगुज़ारी ज़माने की

ना मैं सही, ना तू ग़लत

क्यों उलझें, हम इक दूजे से

छोड़ तकरार, कर उल्फ़त।


कुछ लोग अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे है, आज़ादी, आज़ादी ठीक वैसी, जैसे आदमी जीना चाहता है। स्वछंद जीवन, बिना किसी हस्तक्षेप के। ना कोई सवाल, ना ज़वाब।


आज़ादी का मतलब ये कतई नहीं कि ज़मीन या सरहदें बांटी जाएं या हिंसा फ़ैलाई जाए। आज़ादी का मतलब यहाँ ये समझा जाए कि प्रेम और बस प्रेम में ही डूबे रहने वाले आदमी को प्रेम से बाहर हिंसा या नफ़रत की दुनिया में ना धकेला जाए। उसे वो करने दिया जाए जिससे उसे ख़ुशी मिले। एक बार फिर से कहना चाहूँगा कि ख़ुशी का मतलब हिंसा और नफ़रत के बाहर की दुनिया, जिसमें किसी को, किसी से, किसी तरह का कोई शारिरिक या मानसिक नुक़सान ना पहुँचे या जिसमें किसी का कोई अहित ना छुपा हो।


दरअसल दकियानूसी समाज की जड़ों का कोई छोर नज़र नहीं आता। इन जड़ों को जितना उखाड़ना चाहते हैं, वे उतनी ही ज़्यादा फ़ैलती है, पैरों से साँप की तरह लिपट कर आहिस्ता आहिस्ता डसती रहती है और ज़हर भीतर उतरता रहता है।


कुछ लोग हिम्मत करके गमबूट पहन कर इसी समाज में सिर उठाने की हिम्मत करते रहते है लेकिन उन्हें कुचल दिया जाता है। इन्हीं में से कुछ लोग इन जड़ों के जंजाल से मुक्त होकर एक अलग समाज का हिस्सा बन जाते है। वो समाज ठीक वैसा होता है जैसे व्यक्ति जीना चाहता है, वो समाज उसे आज़ादी के साथ स्वीकार करता है। लेकिन बहुत कम लोग ही उस समाज का हिस्सा बन पाते हैं। क्यों प्रत्येक समाज, व्यक्ति को वैसे स्वीकार नहीं कर पाता जैसे वो जीना चाहता है। क्यों व्यक्ति को अपने अस्तित्व की लड़ाई पहले ख़ुद से और बाद में समाज से लड़नी पड़ रही है ? क्यों उन विषयों पर लगातार चर्चा की जाती है जिन पर वास्तविकता में चर्चा की आवश्यकता है ही नहीं और जिन पर चर्चा की आवश्यकता है दरअसल में अब मुद्दे होकर भी मुद्दे नहीं रह गए हैं, मतलब कि चर्चा योग्य मुद्दों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।


प्रेम में डूबने वाले आदमी को प्रेम में डूबा रहने दें। समाज उसके जीवन में नफ़रत और हिंसा का ज़हर ना घोलें। जियें और जीने दें।


जो बाहर देख रहा हूँ, वही लिख रहा हूँ। जिन पर लिख रहा हूँ वे बरसों से ख़ामोश है, ख़ामोश ही रहेंगे। क्योंकि हर एक शब्द की कोई ना कोई क़ीमत चुकानी होती है और वे क़ीमत चुकाने को तैयार नहीं। घुट घुटकर मरना उन्हें मंज़ूर है लेकिन बग़ावत नहीं। जागें।


~ मनीष शर्मा

Thursday 24 February 2022

जंग ख़त्म करो रूस, यूक्रेन।

बस, ये दुनिया यहीं ख़त्म हो जाये तो बेहतर। क्या फ़ायदा ऐसी दुनिया में जीने का जहाँ प्रेम का हास हो रहा है और नफ़रत फ़ल फूल रही है। क्यों हम आने वाली नस्लों को बारूद के ढेर पर मरने के लिए छोड़ रहे हैं। आदमी, आदमी का दुश्मन बन रहा है और एक देश दूसरे देश से अधिक शक्तिशाली होने के चक्कर में कमज़ोर देश को अपने पैरों तले कुचल रहा है।


हम सब भीड़ हैं, ऐसी भीड़ जो हमेशा से तमाशा देखती आयी है, दो लोगों की लड़ाई का तमाशा। जिस लड़ाई में कमज़ोर ज़ख्मी होता हैं। इन दोनों लोगों की लड़ाई को छुड़वाने का प्रयास करने पर इनकी लड़ाई बीच में ख़त्म हो जाती है लेकिन जो इस लड़ाई में ताक़तवर है वो हमारा दुश्मन बन जाता है। बस यही तमाशा विश्व के सभी देश इस वक़्त देख रहे हैं, कोई बीच बचाव नहीं करेगा। कोई मानवाधिकार आयोग सामने नहीं आएगा। बस सारे देश दूर से निंदा करेंगे।


मेरी बातों में विरोधाभास भी है, कभी कभी मुझे लगता है 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' कहावत कितनी सार्थक है। मैं हमेशा से देखता आ रहा हूँ कि ताक़तवर लोगों की ग़लत बात को भी लोगों ने सही ठहराया है आगे भी ठहराते रहेंगे। कमज़ोर हमेशा कुचला जाता आया है और कुचला जाता रहेगा।


मैं ये नहीं कह रहा है रूस ग़लत है या यूक्रेन। मैं बस ये कह रहा हूँ कि दुनिया में जीना है तो आदमी को इतना ताक़तवर होना चाहिए कि कोई नज़र उठाने से पहले अंजाम के बारे में सौ बार सोचे।


वैसे हम लोग ख़ामख़ा अपने अहंकार का बोझ लिए घूम रहे हैं। अहंकार तो वीटो वालों को होना चाहिये। हमारे पास सामान क्या है ?


वैसे जंग ख़त्म करो, आपस में प्रेम करो यूक्रेन और रूस। नहीं तो दो देशों या दो लोगों की लड़ाई में कभी कभार कोई तीसरा आग में घी डालने का काम करता है और वो तीसरा मौके की तलाश में है।


~ मनीष शर्मा