इस दुनिया में लल्लूू अकेला तो नहीं हैं दर्द का मारा, जो इस असहनीय दर्द से गुजर रहा हो, ना जाने कितने होगें उसके जैसेे, अनगिनत लोग, जिनकी गिनती हमारी कल्पना से भी परे हैं। जो इसी तरह अपने आपको हर पल मरते हुए ना देखना चाह करके एक ही बार में अपनी इहलीला समाप्त कर देना चाहते हो। लेकिन वे शायद ये सोचकर खामोश हो जाते हैं कि “ये जीवन हैं हर परिस्थिति में इसे जीना ही होगा।” लेकिन ना जाने क्यों लल्लूू को देखकर मेरे मन में ये विचार आ रहे हैं कि काश ऐ “मन” तू समन्दर होता और लल्लूू का सारा गम अपने में समा लेता।
“लल्लूू” एक ऐसा व्यक्ति है जो ईश्वर पर अटूट विश्वास रखते हुए सात्विक जीवन यापन करना चाहता हैं, पर इंसान जैसा सोचे अगर वैसा हो जाये तो फिर क्या अन्तर रह जायेगा भगवान में और इंसान में। वो जन्म से ही अनेक प्रकार के असाध्य रोगों से पीडि़त है। उसके घर वालों को दोे जून की रोटी के भी लाले पड़ रहे हैं, ऐसे में कहाँ से लाये वो लल्लूू के इलाज का पैसा। फिर भी उसके घर वाले अपने पेट पर पट्टियाँ बांधते हुए लल्लू के जन्म से ही उसका इलाज करवा रहे हैं, लेकिन लल्लूू का स्वास्थ्य कभी एक सप्ताह ठीक रहता तो आने वाले महीनों तक उसकी हिम्मत बिस्तर से उठ पाने की भी ना होती, लल्लूू की उम्र अब पैंतीस वर्ष की हैं अब उसे उसके पिता की लाठी बनना चाहिए था लेकिन अब भी उसके पिता ही उसे रोजमर्रा के कार्यों से निवृत करवा रहे हैं और लल्लूू के पिता उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी बेलदारी का काम कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं क्यों कि लल्लूू के छोटे भाई का भी कुछ समय पहले एक सड़क दुर्घटना में एक पैर टूट चुका हैं, और वो भी बिस्तर पर पड़ा हैं, दूसरा भाई हैं जो परिवार की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ते हुए घर से पृथक हो गया हैं। लल्लूू की भाभी भी उसे खरी खोटी सुनाने में कोई कसर ना छोड़ती हैं। लल्लूू बेचारा झेंपते हुए सब कुछ सुनता रहता हैं लेकिन लल्लूू की भाभी के सामने उसके बड़े भाई साहब की एक ना चलती, अब लल्लूू की माँ धुंधलाती आँखों से घर का सारा काम करती हैं, घुटनों के दर्द के मारे उठने बैठने में भी वो हमेशा खुद को तकलीफ में पाती हैं, माँ और पिता अपनी वृद्धावस्था को ध्यान में रखते हुए लल्लूू पर शादी करने का भी दबाव बनाते हैं लेकिन घर वालों के इस प्रस्ताव को लल्लूू ठुकरा देता हैं और लल्लूू घर वालों को जवाब देता हैं कि मैं अपना बोझ उठाने में सक्षम नहीं हूँ तो शादी के बाद क्या मुझे किसी ओर की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार हैं? लल्लूू के पिता उस पर झल्लाते हुए बोलते हैं तुम्हें शादी करनी होगी, जवाब में लल्लूू झुंझलाते हुए कहता हैं “नहीं कतई नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता” इस पर लल्लूू के पिता को उस पर गुस्सा आ जाता हैं और उसे कहते हैं “ चलो आज तक तुमने मुझे एक रूपया भी कमाकर नहीं दिया लेकिन तुम मेरा ये कहा भी नहीं मान रहे हो, आखिर कब तक मैं तुम्हारा बोझा ढ़ोता रहूँ।” इसी प्रकार के विवाद और क्लेश की स्थिति अब घर में निरंतर बनी रहती हैं।
रोज-रोज के क्लेश और तानाकशी से तंग आकर के एक दिन लल्लूू घर छोड़ कर किसी अन्जान शहर चला गया। जहाँ मीलों दूर तक लल्लूू को कोई नहीं जानता। महज़ घर से चले जाने से लल्लू के दुखों का अन्त हो गया होता तोे काॅफी होता लेकिन अब लल्लूू के सामने कई प्रकार के संकट उत्पन्न हो गए, दो जून की रोटी का जुगाड़, रहने के लिए भीड़ भरे शहर में ठिकाने की तलाश और अपनी बीमारी का इलाज करवाने के लिए पैसा कमाने की ज़द्दोजहद। वो काम की तलाश में दर बदर भटकता, पर कोई भी उसके कमजोर शरीर को देखकर उसे काम ना देता। दिन ब दिन लल्लूू का स्वास्थ्य और भी खराब होने लगा पर उसकी ऐसी दशा देखकर के कई लोग सहानूभूति दिखाते पर मदद को दूर तलक कोई भी नजर ना आता। इसलिए वो अपने जीवन को किश्तों में जी रहा हैं। एक दिन काम की तलाश में घूमते हुए लल्लूू किसी ठेकेदार से मिला, ठेकेदार ने उसे बेलदारी का काम दे दिया, लल्लूू ने चिलचिलाती धूप में गिरते सम्भलते हुए कुछ समय काम किया, काम करते हुए एकाएक लल्लूू के सिर पर से पत्थरों की भरी तगारी लल्लूू के ऊपर गिर गई। लेकिन जैसा कि हमें विदित हैं मनुष्य प्रजाति को नुकसान शब्द से इतनी ईष्या हैं तो नुकसान हो जाना कहाँ बर्दाश्त हो सकता हैं, लल्लूू की मनोदशा को वहाँ भला कौन समझ पाता, क्योंकि जिंदा लाशें जो बसती हैं इस धरती पर। लल्लूू को चंद पैसे देकर ठेकेदार ने चलता किया। लल्लूू के जीवन में हमेशा भोर होने से पहले ही सांझ हो जाया करती हैं।
अगले ही दिन लल्लूू को तेज बुखार के साथ खांसी, जुकाम, उल्टी और दस्त भी होने लगी और वो दर्द से कराहने लगा। दूर तलक कोई नहीं हैं अपने कांधें का सहारा देकर उसे अस्पताल तक ले जाने वाला। इसलिए वो खुद ही लड़खड़ाते हुए अस्पताल में डॅाक्टर को दिखाने के लिए पहुँचा। अस्पताल में पहुँचते ही लल्लूू अचेत हो गया, आनन फानन में डॅाक्टर ने उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया, और ग्लूकोज़ की बोंतलें चढ़ानी शुरू कर दी। कुछ देर बाद जब लल्लूू को होश आया तो अपनी इस अवस्था पर फूट फूट कर रोने लगा, मगर वहाँ उसके पास उसका रूग्ण पोंछने वाला कोई नहीं। लावारिस की भांति दो दिन तक लल्लूू अस्पताल में ही भर्ती रहा। जब उसे अस्पताल से छुट्टी दी गई तो रास्ते में भरी दोपहर होने के कारण वो थोड़ी देर एक सूखे पेड़ की मद्दम छाँव में बैठ गया, और आँसू बहाते हुए अपने आप को कोसने लगा। और सोचने लगा उन जख््मों का मरहम कहाँ े इस दुनिया से मिले हैं। अब लल्लूू का धैर्य भी जवाब दे चुका हैं और उसे लग रहा था कि उसके जीवन में सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा रह गया हैं एक ऐसा अंधेरा जिसे मिटाने वाला रोशन सवेरा शायद कभी ना हो। जिस प्रकार सूरज और चद्रंमा को ग्रहण लगता हैं ठीक उसी प्रकार से उसके जीवन को भी ग्रहण लग गया हैं।
क्या महज् साँसों का चलना जीवन हैं, क्या रोगर्युक्त असहनीय दर्द को सहन करना जीवन हैं। क्या मुफलिसी में बिताया गया जीवन ‘‘जीवन‘‘ हैं। ये सवाल उसके खुद से थे और जवाब देने वाला कोई नहीं।
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मनीष शर्मा
लेखक बाड़मेर (राजस्थान)