मानव के चरित्र का चित्रण केवल मध्यम वर्गीय लोग ही करते हैं और किसी की निजी ज़िंदगी में दख़ल भी ज़्यादातर मध्यम वर्गीय लोग ही देते हैं। उच्च वर्गीय लोगों की नज़र आर्थिक शिखर पर होती है, वे हमेशा, वो काम करते हैं जो उन्हें ख़ुशी दे और सफ़ल बनाये। साथ ही वे केवल अपना जीवन जीते हैं, किसी और का नहीं। इन्हें इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन इनके बारे में क्या सोचता है।
वहीं बात की जाए अगर निम्न वर्ग की, तो वे अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में इतना व्यस्त रहते हैं कि कब दिन डूबे, कब रात ढले इसका इन्हें आभास नहीं।
ज़्यादातर लोग मध्यमवर्गीय सोच वाले हैं। ये वे लोग हैं जो आदमी की परिधि और दायरे तय करते हैं। ये वर्ग आदमी को ये सिखाता हैं कि ख़ुद की ख़ुशी का गला घोंटो और सबके बारे में सोचो और वो सब जिनके बारे में सोचना है, वे, वे लोग है जो दूसरों की ज़िंदगी में आग लगा के तमाशा देखते हैं और ख़ुद वो करते हैं जो उन्हें ठीक लगता है।
मैं हमेशा से देखता आया हूँ कि किसी भी व्यक्ति को अगर नीचा दिखाना है तो उसके चरित्र पर कीचड़ उछाल दो। यहाँ व्यक्ति से तात्पर्य स्त्री और पुरूष दोनों समझा जावें। इस कीचड़ के दाग इतने गहरे होते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन दागों को नहीं मिटा पाती।
आदमी ने कितनी आसानी से (जैविक) बायोलॉजिकल ज़रूरत को चरित्र से जोड़ दिया और उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करने लगा। एक ऐसा हथियार जो आदमी को हर रोज़ मारता है। इससे बड़ा हथियार ना कभी बना है और ना ही कभी बनेगा।
एक दिन वैसे भी सभी को मिट्टी हो जाना हैं। ना धर्म की दीवारें, ना मज़हब का पर्दा, ना कोई सामाजिक परिधि। हर बेड़ी से मुक्त। लेकिन उस मुक्ति से पहले की जकड़न। उफ़्फ़...।
वैसे हमारे लिए मायने ये रखता है कि आदमी अपने जीवन में कितना ख़ुश रहता है, ना कि ये, कि लोगों ने हमारे बारे में क्या राय बना रखी है। इसलिए जियें और जीने दें, ठीक वैसे जैसा आदमी जीना चाहता है। यहाँ आदमी के चाहने का मतलब किसी को शारीरिक या मानसिक क्षति ना पहुँचे, वैसे। क्यों कि आदमी की चाहत के कईं रूप हैं। आजकल आदमी ने प्रेम की बजाय नफ़रत को चुन लिया है। हम रहेंगे या नहीं रहेंगे लेकिन प्रेम शाश्वत रहेगा...
~ मनीष शर्मा