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Monday 31 December 2018

नववर्ष अभिनंदन

छात्रसंघ राजकीय पी. जी. महाविद्यालय, बाड़मेर अंतरप्रांतीय कुमार साहित्य परिषद एवं उजास संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में नववर्ष पर आयोजित कवि सम्मेलन में कविता पाठ करते हुए।








Sunday 30 September 2018

आधुनिक भारत।

आधुनिक भारत।

भारत इस वक़्त आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। मगर सरकार का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं हैं। अगर ऐसा कुछ नहीं हैं तो डॉलर की तुलना में रुपये की क़ीमत क्यों गिर रही हैं ? पेट्रोल - डीजल से लेकर खाने पीने की सभी चीज़ों के भाव आसमान क्यों छू रहे हैं ? तो फिर क्यों कुछ शहरों में लोग इस आर्थिक संकट की वज़ह से शहर से अपने गाँवों का रूख़ कर रहे हैं ?

सरकार और विपक्ष अपनी ग़ौरव बख़ान गाथायें गा रही हैं। जिन मुद्दों पर सरकार और विपक्ष को मंथन करने की आवश्यकता है उन मुद्दों पर इनका ध्यान कभी नहीं जाता। जैसे - जनसंख्या वृद्धि, भुखमरी, स्वास्थ्य, कुपोषण, धर्म, जातिवाद, आरक्षण और महिला सुरक्षा इत्यादि।

रोज़गार के अवसर इतने कम हो चुके हैं कि उच्च शिक्षा वाले लोग निम्न शिक्षा वाले लोगों के रोज़गार का चुनाव करने लगे हैं। निम्न शिक्षा वाले लोग हमाल मजदूरी करने पर मजबूर हैं।

सरकार पोषण पर आजकल बहुत सारे कार्यक्रम चला रही हैं। मगर दूर तक पोषण किसी गरीब के शरीर में नज़र नहीं आता। पोषण से जुड़ी बातें किताबी रह गई हैं। यहाँ तक कि फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के लिए सूखी रोटी ही पोषण हैं। वे जैसे तैसे एक वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेते है लेकिन शाम को उसका भी जुगाड़ होगा या नहीं इस बात की कोई गारंटी नहीं।

71 साल पहले मिली आज़ादी की क़ीमत अब सब भुला चुके हैं। वैसे ग़ुलामी करवाने वालों ने सिर्फ़ चेहरा बदला हैं। पहले गोरे थे, अब अपने ही रंग के हैं। ग़ुलाम हम पहले भी थे ग़ुलाम हम आज भी हैं। अगर ग़ुलाम नहीं है तो चुनाव हो जाने के बाद जिस प्रत्याशी को हम चुनते है। उसके द्वारा जनहित के कार्य सही प्रकार से नहीं किये जाने पर जनता मूक दर्शक की भाँति देखने के सिवाय क्या कर सकती है ? क्या उसे 5 साल से पहले बदल पाने का अधिकार जनता के पास हैं ?

जनता सच में मजबूर हैं और भारत से विकास कोसों दूर।

तस्वीर स्त्रोत : गूगल

~ मनीष शर्मा

Tuesday 18 September 2018

लेखक तन्हा।

अगर आपका लेखन से दूर तलक़ कोई वास्ता नहीं है तो कतई सच्चे प्यार के चक्कर में ना पड़ें। सिर्फ़ पैसा कमायें। लेखकों को प्यार करना इसलिए जरूरी होता है कि दिल लगाने से लेकर दिल तुड़वाने तक लगभग सभी तरह के खुशियाँ और ग़म भरे गीत, शायरी, गज़ल, नज़्म, कवितायें और कहानियाँ लिखनी होतीं हैं।
वैसे अंत में वही सच्चा प्यार झूठा निकलता हैं और लेखक तन्हा।

~ मनीष शर्मा

Monday 10 September 2018

“मैं”

हमारे ठाकुर जी की एक लघु कथा

“मैं”

मैं, ठाकुर जी और मेरी मम्मी जी हर शाम स्टेडियम जाते हैं। मैं जॉगिंग के लिए, ठाकुर जी झूले खाने, घूमने के लिए और मेरी मम्मी जी ठाकुर जी का ख़्याल रखने के लिए।

कल मेरी जॉगिंग पूरी हो जाने के बाद मैं ठाकुर जी के पास आया। ठाकुर जी मिट्टी में बैठे खेल रहे थे। ठाकुर जी जहाँ बैठे थे वहां से दस क़दम की दूरी पर दो नंग धड़ंग बच्चे जिनकी उम्र ठाकुर जी की उम्र से तक़रीबन पाँच साल ज़्यादा रही होगी दोनों कुश्ती कर रहे थे और मिट्टी में खेलते खेलते भौंहें ऊपर करके कुश्ती कर रहे उन बच्चों को ठाकुर जी बार बार देख रहे थे।

‘वैसे ठाकुर जी को कुश्ती का बड़ा शौक़ है। हर रोज़ मेरे और ठाकुर जी के बीच पलँग पर कुश्ती होती हैं।’ इसी कुश्ती के दरम्यां ठाकुर जी की मम्मी जी को बस एक ही फ़िक्र कि ठाकुर जी और आप पलंग तोड़ दोगे।

मैं उन कुश्ती कर रहे बच्चों के पास गया और एक बच्चे से बोला क्या आप ठाकुर जी से कुश्ती करेंगें। बच्चा बोला हाँ जी।

मग़र मैंने बच्चे के कान में धीरे से फुसफुसाते हुए कहा कि आपको ठाकुर जी से हारना है। बच्चा सहजता से बोला ‘जी’ मैं हारने को तैयार हूँ।

इतने में ठाकुर जी से मेरी मम्मी जी का एक सवाल - ठाकुर जी आपको क्या पसंद है ? पढ़ाई या खेलना ? ठाकुर जी का जवाब दोनों ही नहीं। मुझे तो बच्चों से लड़ना पसंद हैं।

कुश्ती का पहला चरण शुरू हुआ ठाकुर जी ने ज़ोर आज़माया और उस बच्चे को हरा दिया। क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे चरण में भी ऐसा ही हुआ। ठाकुर जी ने उस बच्चे को हर बार हरा दिया। ठाकुर जी बहुत ख़ुश थे और ज़ोर ज़ोर से हंस रहे थे। मैं ठाकुर जी से भी ज़्यादा ख़ुश था। ऐसी ख़ुशी मुझे कभी मेरे जीतने पर भी नहीं हुई। मग़र मुझे ठाकुर जी की उस वास्तविक जीत का इन्तज़ार हमेशा रहेगा जो उनके पुरुषार्थ के दम पर होगी। ऐसा एक दिन ज़रूर आयेगा, मुझे पूरा यक़ीन हैं।

हम लोग आज भी स्टेडियम गये। स्टेडियम पहुंचते ही मैं जॉगिंग करने लगा और ठाकुर जी खेलने लग गये।

कुछ देर बाद मैं ठाकुर जी के पास आया तो ठाकुर जी की आँखों में उन बच्चों का इंतज़ार साफ़ नज़र आ रहा था।

एकाएक ठाकुर जी ने सवाल किया पापाजी आज वो बच्चे नहीं आये ?

मैंने ठाकुर जी से कहा - हाँ आज वो बच्चे नहीं आये। आपने उन्हें कल कुश्ती में बुरी तरह से हरा दिया इसीलिए आज वे डर के मारे नहीं आये। ये सुन ठाकुर जी के चेहरे पर मंद मंद मुस्कुराहट आयी और अपनी भुजा को उठा अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने लगे और दाँत भींचते हुए कहने लगे ‘देखा पापा जी में कितना ताक़तवर हूँ।' मुझे और मेरी मम्मी जी को ज़ोरों की हंसी आ रही थी।

सारांश - बड़े तो बड़े छोटे बच्चे भी अहंकार से भरे होते हैं। दूसरे शब्दों में यूँ कहूँ की हर एक शख्स तारीफ़ का मोहताज़ हैं। इंसान की गई सही तारीफ़ उसे शिखर पर भी ले जा सकती है तो झूठी उसे हाशिये पर भी ला सकती हैं। मुझे ठाकुर जी को इसी अहंकार से बचाये रखते हुए सही तारीफ़ का हक़दार बनाये रखने के साथ साथ एक अच्छा इंसान भी बनाये रखने की पूरी कोशिश करनी हैं।

क्योंकि अहंकार इंसान की इंसानियत को ज़िंदा निगल जाती हैं। भगवान ठाकुर जी को हमेशा हर बुरी नज़र से बचाये रखे।

तस्वीर कुश्ती से ठीक पहले की।

~ मनीष शर्मा


Tuesday 3 July 2018

फ़िल्म संजू की समीक्षा मेरी कलम से।

ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जिया जाना चाहिए। मगर शर्ते जब कोई और तय कर दे तो फिर रास्ते बदल लेना ही ठीक रहता हैं।

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।

मैंने दो दिन पहले फ़िल्म संजू देखी। इस फ़िल्म के ट्रेलर ने मन में पहले से ही उत्पात मचा रखा था। राजकुमार जी हिरानी ने ट्रेलर में ही फ़िल्म की तस्वीर लगभग साफ़ कर दी थी। फ़िल्म के विषय को जिस इंसान पर केन्द्रित किया गया। उस इंसान की ज़िंदगी किसी आम या ख़ास आदमी या औरत द्वारा जी पाना तो दूर की बात है उसके बारे में सोचना भी भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल होगा।

फ़िल्म संजू को हीरो बनाती है या विलेन इस पर विभिन्न मत हो सकते हैं। कोई कहेगा संजू के बारे में आधा सत्य दिखाया गया ताकि फ़िल्म को कॉमर्शियल बनाया जा सके। तो कोई कहेगा कि फ़िल्म में वो सब कुछ नहीं दिखाया जाना चाहिए जिससे कि संजू की छवि जनता में विलेन की तरह उभरे। तो कोई कहेगा कि संजू को एक हीरो की तरह पर्दे पर उतारा गया।

वैसे फ़िल्म के मुताबिख़ संजू ने पहली बार ड्रग्स इसलिए ली कि वो पिता से ख़फ़ा थे। दूसरी बार इसलिए कि उनकी माँ को कैंसर हो चुका था और तीसरी बार तक वो आदतन नशेड़ी बन चुके थे।

सुनिल दत्त साहब एक महान इंसान थे। फ़िल्म देखने के बाद मेरी नज़र में उनकी इज़्ज़त और भी बढ़ गयी। एक पिता ने अपने बच्चे के लिए कितना संघर्ष किया ये पर्दे पर दिखाए जाने से पहले शायद ही किसी ने जाना हो। लेकिन यहाँ ग़ौर किये जाने वाली बात ये है कि संजू उस रास्ते पर क्यों चल पड़े जिस रास्ते की मंज़िल एक वीरान उजड़ी इमारत सी सिर्फ़ और सिर्फ पश्चाताप लिए मिलती हैं। अक़्सर भारत में एक पिता और पुत्र के बीच वो रिश्ता नहीं बन पाता जिसे दोस्ती का नाम दिया जा सके। शायद इसलिए भी नहीं कि एक पिता को ये भय रहता हो कि कहीं उसका लाड प्यार उसके पुत्र को बिगाड़ ना दे। लेकिन फ़ासले भी अलगाव लेकर के आते हैं ये बात संजू की कहानी में देखने को मिलती हैं। अगर पिता पुत्र के बीच रिश्ता सरल और सहज होता तो शुरुआती वक़्त में ही संजू द्वारा चुने गए कांटों भरे रास्ते को उनके पिता फूलों भरे रास्ते में बदल देते। जहाँ दूर दूर तक कोई भटकाव ना होता।

काश संजू जितना बेबाक़ भारत का हर एक इंसान होता। जो अपनी ज़िंदगी के वो राज़ भी बड़ी आसानी से खोल देता जिसे इंसान अपने सीने में दफ़न कर चुका होता है। दफ़न इसलिए कि कहीं राज़ ने कफ़न उघाड़ लिया तो ज़िंदगी ना जाने कितनी तबाहियाँ लिए हुए आ सकती हैं। अमूमन इस तरह के राज़ एक पुरुष की अपेक्षा एक महिला की ज़िंदगी में ज़लज़ला लाती हैं। क्यों कि हर आदमी का अतीत अच्छा और बुरा दोनों तरह का होता है।

फ़िल्म संजू के एक संवाद में अनुष्का शर्मा रणबीर कपूर से पूछती है - "संजू अपनी बीवी के अलावा तुम कितनी औरतों के साथ सोये हो ? संजू कहते हैं - प्रोस्टिट्यूटूटस को गिनु या उनको अलग। नहीं उनको अलग। नहीं अलग रखता हूँ। नहीं 308 तक याद हैं। चलो आप शिफ्टिंग के लिए 350 लिख लो। तो क्या इसका मतलब ये समझा जाये कि संजू भारतीय सभ्यतानुसार चरित्रहीन रहे ? ज़्यादातर लोगों का जवाब होगा हाँ। हाँ इसलिए कि संजू ने ये सहज स्वीकार कर लिया कि उसके संबंध कईं महिलाओं के साथ रहे। ये अलग बात है कि संजू से भी दो क़दम आगे रहे लोगों का दामन आज भी पाक है। क्योंकि उन्होंने वो सब करते हुए एक पर्दे की आड़ ली।

या फिर बात अगर की जाये क्यूबा के क्रांतिवीर फिदेल कास्त्रो की तो उन्होंने भी संजू की तरह पूरी दुनिया के सामने ये सहज़ स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी में अनुमानित 35000 महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाये। लेकिन उनकी छवि दागदार नहीं हैं क्यों कि वो पाश्चात्य संस्कृति से हैं जिन्हें हम अक़्सर चरित्रहीन कहकर टाल देते हैं। वैसे जिसे पाया ना जा सके उसमें नुक़्स निकालकर उसे छोड़ देना सबसे बेहतर उपाय तलाशा है हमने।

कहीं ना कहीं संजू की ज़िंदगी में जो बदनुमा दाग ड्रग्स और बंदूक का रहा। वो दर्शाता है कि एक नकारा सिस्टम आदमी को वो बनने पर मजबूर कर देता है जो वो कभी नहीं बनना चाहता। अपने पिता और परिवार को जान से मारने की मिल रही धमकियों पर सिस्टम का कोई एक्शन नहीं हुआ तो बंदूक से पाला पड़ गया। ध्यान दिलाना चाहूँगा कि यहाँ मैं संजू का उसके परिवार के लिए जोश और जुनून में लिया गया फ़ैसला तात्पर्य कि आत्मसुरक्षा के लिए बंदूक लिए जाने का समर्थन नहीं कर रहा। लेकिन सिस्टम अगर सही काम करता तो संजू का कभी जेल से भी वास्ता ना पड़ता।

इतने बुरे दौर से गुज़र कर लौट आना किसी भी इंसान के लिए मुनासिब नहीं होता। मगर भूत, वर्तमान और भविष्य की पेशमपेश में फंसे संजू ने आख़िर में मैदान फ़तह किया।

फ़िल्म की समीक्षा लिखते हुए अंत में मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि एक हारे हुए इंसान के जीतने की कहानी हैं संजू। फ़िल्म हर एक कसौटी पर बेहतरीन हैं। फ़िल्म का हर एक कलाकार ने अपने क़िरदार में जान फूंक दी हैं। डायरेक्टर का विज़न उनकी पिछली फ़िल्म की भाँति बिल्कुल सही और सटीक है। किसी भी जगह फ़िल्म ढीली दिखाई नहीं पड़ती। फ़िल्म एक सबसे अच्छा संदेश ये देती है कि हर इंसान परिणाम से वाकिफ़ होता है फिर भी वो कर्म कर बैठता जो अंत में उसे आत्मग्लानि से भर देता हैं। इसीलिए ये 
हमेशा याद रखा जाना ज़रूरी है कि रिश्तों में कभी वो दरार ना आने पाये जिसे कभी भी भरा ना जा सके। या जिनके कारण अपने अपनों से इतने दूर चले जायें कि वापसी मुश्किल बहुत मुश्किल हो जाये। या फिर वापसी करते हुए सिर्फ़ और सिर्फ़ पश्चाताप के अलावा कुछ ना हों।

एक बात और येे कि हम किसी भी अहंकारवश बहुत सी बातें कभी किसी से कह नहीं पाते। फिर वो बात चाहे किसी से माफ़ी माँगने की हो या प्यार ज़ाहिर किये जाने की। जैसा कि फ़िल्म में दिखाया गया है कि संजय दत्त भी सुनिल दत्त साहब को वो सब कहना चाहते थे जो बरसों से उनके दिल में दबा था। मगर कह पाने से पहले ही दत्त साहब संजय दत्त को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए भगवान के पास चले जाते हैं। इससे पहले कि हमारे अपने किसी दिन दूर चले जायें एक बार जादू की झप्पी ले ली जाये और ज़िंदगी को काश कहने से बचा लिया जाये। 

#ManishSharma

Sunday 8 April 2018

सौ सालों के बाद हमारे देश भारत में सब कुछ सही हो जायेगा।

सौ सालों के बाद हमारे देश भारत में सब कुछ सही हो जायेगा। कुछ भी अस्त व्यस्त नहीं होगा। आर्थिक, धार्मिक और नैतिक कोई द्वंद नहीं होगा। कोई बेरोजग़ार नहीं होगा। किसी को आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। कहीं कोई लाईन नहीं होगी। सभी के पास तरक्क़ी के पर्याप्त अवसर होंगे। हर व्यक्ति साठ वर्ष की आयु में भी तीस वर्ष सा नज़र आयेगा। कोई गला काट आगे बढ़ने जैसी प्रतिस्पर्धा नहीं होगी कोई चोरी चकारी, लूटपाट नहीं होगी। सभी को ज़रूरत की वस्तुऐं उपलब्ध होंगी। एक वस्तु की ख़्वाहिश में चार वस्तुऐं हाज़िर होंगी। भूलवश कोई अपराध हो भी गया तो कानून व्यवस्था ऐसी कि हाथों हाथ न्याय और दोषी को कठोर दंड।

शिक्षा इतनी बेहतरीन होगी कि अच्छी पढ़ाई लिखाई करके बच्चे अपनी पसंद के व्यवसाय का चुनाव कर पायेंगे और देश के एक ज़िम्मेदार नागरिक बन पायेंगे।

स्वास्थ्य सेवायें ऐसी कि अस्पताल में एक डॉक्टर गिनती के मरीज़ देखेगा। एक नर्स या कंपाउंडर सिर्फ़ एक ही मरीज़ के लिए होगा। दवाइयाँ और खून जाँच की गुणवत्ता ऐसी कि एक बार के ट्रीटमेंट से ही मरीज़ ठीक हो जायेगा।

परिवहन सेवायें ऐसी होंगी कि हर व्यक्ति सिर्फ़ अपनी सीट पर बैठेगा। वर्तमान की तरह ऐसा नहीं कि चार लोगों की सीट पर सात लोग बैठें हो या दर्जनों लोग सीट मिलने के इंतजार में खड़े हों। कोई सीट के लिए झगड़ेगा नहीं। ना ही ऐसी स्थिति होगी कि किसी को फलाँ स्टेशन पर उतरना हो लेकिन भीड़ का दबाव उसे उसके गन्तव्य स्थान से पहले ही उतार दे।

महिलायें पूरी तरह से महफ़ूज़ होंगी। बलात्कार पर पूर्णतया अंकुश लग जायेगा। अग़र कहीं कोई वारदात हो भी जाती है तो तुरंत प्रभाव से पुलिस पहुंच जायेगी। अपराधी को ऐसी सज़ा दी जायेगी कि भविष्य में अपराध का ख़्याल भी किसी अपराधी के जेहन से धूमिल हो जायेगा।

रास्तों में कभी कोई भीख मांगता हुआ नज़र नहीं आयेगा। ना ही कभी कोई झुग्गी झोंपड़ी नज़र आयेगी। कहीं कोई शोषित नहीं होगा।

वर्तमान में 2 जी से 4 जी तक के सफ़र में बरसों लगे। जिसमें भी देश की बहुत बड़ी आबादी सीधी 2 जी से 4 जी में पहुँची है। वो आबादी 3 जी स्पीड से मेहरूम रही। लेकिन सौ साल बाद संचार व्यवस्था हमेशा दुरुस्त और बेहतरीन होगी।

जिस बैलेंस डायट की बातें अक़्सर हमने किताबों में पढ़ी है। वो बैलेंस डायट लोगों की थाली में होगी। फिर 1 सब्जी और कुछ चपातियों से पेट नहीं भरना होगा।

ईमानदार लोगों के लिए ये धरती जन्नत बन जायेगी और बेईमानों के लिए दोज़ख़।

देश को वीटो पावर भी मिल जायेगा। देश विकाशशील ना रहकर के विकसित देशों में शामिल हो जायेगा। विकास की एक ऐसी गंगा बहेगी जिसमें ख़ुशहाली ही ख़ुशहाली नज़र आयेगी।

सौ सालों के बाद हमारे देश भारत में सब कुछ सही हो जायेगा "अग़र जनसंख्यावृद्धि पर एक बेहतरीन सरकार लग़ाम लगा लेती हैं तो..."

~ मनीष शर्मा