सब कारगुज़ारी ज़माने की
ना मैं सही, ना तू ग़लत
क्यों उलझें, हम इक दूजे से
छोड़ तकरार, कर उल्फ़त।
कुछ लोग अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे है, आज़ादी, आज़ादी ठीक वैसी, जैसे आदमी जीना चाहता है। स्वछंद जीवन, बिना किसी हस्तक्षेप के। ना कोई सवाल, ना ज़वाब।
आज़ादी का मतलब ये कतई नहीं कि ज़मीन या सरहदें बांटी जाएं या हिंसा फ़ैलाई जाए। आज़ादी का मतलब यहाँ ये समझा जाए कि प्रेम और बस प्रेम में ही डूबे रहने वाले आदमी को प्रेम से बाहर हिंसा या नफ़रत की दुनिया में ना धकेला जाए। उसे वो करने दिया जाए जिससे उसे ख़ुशी मिले। एक बार फिर से कहना चाहूँगा कि ख़ुशी का मतलब हिंसा और नफ़रत के बाहर की दुनिया, जिसमें किसी को, किसी से, किसी तरह का कोई शारिरिक या मानसिक नुक़सान ना पहुँचे या जिसमें किसी का कोई अहित ना छुपा हो।
दरअसल दकियानूसी समाज की जड़ों का कोई छोर नज़र नहीं आता। इन जड़ों को जितना उखाड़ना चाहते हैं, वे उतनी ही ज़्यादा फ़ैलती है, पैरों से साँप की तरह लिपट कर आहिस्ता आहिस्ता डसती रहती है और ज़हर भीतर उतरता रहता है।
कुछ लोग हिम्मत करके गमबूट पहन कर इसी समाज में सिर उठाने की हिम्मत करते रहते है लेकिन उन्हें कुचल दिया जाता है। इन्हीं में से कुछ लोग इन जड़ों के जंजाल से मुक्त होकर एक अलग समाज का हिस्सा बन जाते है। वो समाज ठीक वैसा होता है जैसे व्यक्ति जीना चाहता है, वो समाज उसे आज़ादी के साथ स्वीकार करता है। लेकिन बहुत कम लोग ही उस समाज का हिस्सा बन पाते हैं। क्यों प्रत्येक समाज, व्यक्ति को वैसे स्वीकार नहीं कर पाता जैसे वो जीना चाहता है। क्यों व्यक्ति को अपने अस्तित्व की लड़ाई पहले ख़ुद से और बाद में समाज से लड़नी पड़ रही है ? क्यों उन विषयों पर लगातार चर्चा की जाती है जिन पर वास्तविकता में चर्चा की आवश्यकता है ही नहीं और जिन पर चर्चा की आवश्यकता है दरअसल में अब मुद्दे होकर भी मुद्दे नहीं रह गए हैं, मतलब कि चर्चा योग्य मुद्दों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
प्रेम में डूबने वाले आदमी को प्रेम में डूबा रहने दें। समाज उसके जीवन में नफ़रत और हिंसा का ज़हर ना घोलें। जियें और जीने दें।
जो बाहर देख रहा हूँ, वही लिख रहा हूँ। जिन पर लिख रहा हूँ वे बरसों से ख़ामोश है, ख़ामोश ही रहेंगे। क्योंकि हर एक शब्द की कोई ना कोई क़ीमत चुकानी होती है और वे क़ीमत चुकाने को तैयार नहीं। घुट घुटकर मरना उन्हें मंज़ूर है लेकिन बग़ावत नहीं। जागें।
~ मनीष शर्मा