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Tuesday 3 July 2018

फ़िल्म संजू की समीक्षा मेरी कलम से।

ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जिया जाना चाहिए। मगर शर्ते जब कोई और तय कर दे तो फिर रास्ते बदल लेना ही ठीक रहता हैं।

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।

मैंने दो दिन पहले फ़िल्म संजू देखी। इस फ़िल्म के ट्रेलर ने मन में पहले से ही उत्पात मचा रखा था। राजकुमार जी हिरानी ने ट्रेलर में ही फ़िल्म की तस्वीर लगभग साफ़ कर दी थी। फ़िल्म के विषय को जिस इंसान पर केन्द्रित किया गया। उस इंसान की ज़िंदगी किसी आम या ख़ास आदमी या औरत द्वारा जी पाना तो दूर की बात है उसके बारे में सोचना भी भारत जैसे देश में बहुत मुश्किल होगा।

फ़िल्म संजू को हीरो बनाती है या विलेन इस पर विभिन्न मत हो सकते हैं। कोई कहेगा संजू के बारे में आधा सत्य दिखाया गया ताकि फ़िल्म को कॉमर्शियल बनाया जा सके। तो कोई कहेगा कि फ़िल्म में वो सब कुछ नहीं दिखाया जाना चाहिए जिससे कि संजू की छवि जनता में विलेन की तरह उभरे। तो कोई कहेगा कि संजू को एक हीरो की तरह पर्दे पर उतारा गया।

वैसे फ़िल्म के मुताबिख़ संजू ने पहली बार ड्रग्स इसलिए ली कि वो पिता से ख़फ़ा थे। दूसरी बार इसलिए कि उनकी माँ को कैंसर हो चुका था और तीसरी बार तक वो आदतन नशेड़ी बन चुके थे।

सुनिल दत्त साहब एक महान इंसान थे। फ़िल्म देखने के बाद मेरी नज़र में उनकी इज़्ज़त और भी बढ़ गयी। एक पिता ने अपने बच्चे के लिए कितना संघर्ष किया ये पर्दे पर दिखाए जाने से पहले शायद ही किसी ने जाना हो। लेकिन यहाँ ग़ौर किये जाने वाली बात ये है कि संजू उस रास्ते पर क्यों चल पड़े जिस रास्ते की मंज़िल एक वीरान उजड़ी इमारत सी सिर्फ़ और सिर्फ पश्चाताप लिए मिलती हैं। अक़्सर भारत में एक पिता और पुत्र के बीच वो रिश्ता नहीं बन पाता जिसे दोस्ती का नाम दिया जा सके। शायद इसलिए भी नहीं कि एक पिता को ये भय रहता हो कि कहीं उसका लाड प्यार उसके पुत्र को बिगाड़ ना दे। लेकिन फ़ासले भी अलगाव लेकर के आते हैं ये बात संजू की कहानी में देखने को मिलती हैं। अगर पिता पुत्र के बीच रिश्ता सरल और सहज होता तो शुरुआती वक़्त में ही संजू द्वारा चुने गए कांटों भरे रास्ते को उनके पिता फूलों भरे रास्ते में बदल देते। जहाँ दूर दूर तक कोई भटकाव ना होता।

काश संजू जितना बेबाक़ भारत का हर एक इंसान होता। जो अपनी ज़िंदगी के वो राज़ भी बड़ी आसानी से खोल देता जिसे इंसान अपने सीने में दफ़न कर चुका होता है। दफ़न इसलिए कि कहीं राज़ ने कफ़न उघाड़ लिया तो ज़िंदगी ना जाने कितनी तबाहियाँ लिए हुए आ सकती हैं। अमूमन इस तरह के राज़ एक पुरुष की अपेक्षा एक महिला की ज़िंदगी में ज़लज़ला लाती हैं। क्यों कि हर आदमी का अतीत अच्छा और बुरा दोनों तरह का होता है।

फ़िल्म संजू के एक संवाद में अनुष्का शर्मा रणबीर कपूर से पूछती है - "संजू अपनी बीवी के अलावा तुम कितनी औरतों के साथ सोये हो ? संजू कहते हैं - प्रोस्टिट्यूटूटस को गिनु या उनको अलग। नहीं उनको अलग। नहीं अलग रखता हूँ। नहीं 308 तक याद हैं। चलो आप शिफ्टिंग के लिए 350 लिख लो। तो क्या इसका मतलब ये समझा जाये कि संजू भारतीय सभ्यतानुसार चरित्रहीन रहे ? ज़्यादातर लोगों का जवाब होगा हाँ। हाँ इसलिए कि संजू ने ये सहज स्वीकार कर लिया कि उसके संबंध कईं महिलाओं के साथ रहे। ये अलग बात है कि संजू से भी दो क़दम आगे रहे लोगों का दामन आज भी पाक है। क्योंकि उन्होंने वो सब करते हुए एक पर्दे की आड़ ली।

या फिर बात अगर की जाये क्यूबा के क्रांतिवीर फिदेल कास्त्रो की तो उन्होंने भी संजू की तरह पूरी दुनिया के सामने ये सहज़ स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी में अनुमानित 35000 महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाये। लेकिन उनकी छवि दागदार नहीं हैं क्यों कि वो पाश्चात्य संस्कृति से हैं जिन्हें हम अक़्सर चरित्रहीन कहकर टाल देते हैं। वैसे जिसे पाया ना जा सके उसमें नुक़्स निकालकर उसे छोड़ देना सबसे बेहतर उपाय तलाशा है हमने।

कहीं ना कहीं संजू की ज़िंदगी में जो बदनुमा दाग ड्रग्स और बंदूक का रहा। वो दर्शाता है कि एक नकारा सिस्टम आदमी को वो बनने पर मजबूर कर देता है जो वो कभी नहीं बनना चाहता। अपने पिता और परिवार को जान से मारने की मिल रही धमकियों पर सिस्टम का कोई एक्शन नहीं हुआ तो बंदूक से पाला पड़ गया। ध्यान दिलाना चाहूँगा कि यहाँ मैं संजू का उसके परिवार के लिए जोश और जुनून में लिया गया फ़ैसला तात्पर्य कि आत्मसुरक्षा के लिए बंदूक लिए जाने का समर्थन नहीं कर रहा। लेकिन सिस्टम अगर सही काम करता तो संजू का कभी जेल से भी वास्ता ना पड़ता।

इतने बुरे दौर से गुज़र कर लौट आना किसी भी इंसान के लिए मुनासिब नहीं होता। मगर भूत, वर्तमान और भविष्य की पेशमपेश में फंसे संजू ने आख़िर में मैदान फ़तह किया।

फ़िल्म की समीक्षा लिखते हुए अंत में मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि एक हारे हुए इंसान के जीतने की कहानी हैं संजू। फ़िल्म हर एक कसौटी पर बेहतरीन हैं। फ़िल्म का हर एक कलाकार ने अपने क़िरदार में जान फूंक दी हैं। डायरेक्टर का विज़न उनकी पिछली फ़िल्म की भाँति बिल्कुल सही और सटीक है। किसी भी जगह फ़िल्म ढीली दिखाई नहीं पड़ती। फ़िल्म एक सबसे अच्छा संदेश ये देती है कि हर इंसान परिणाम से वाकिफ़ होता है फिर भी वो कर्म कर बैठता जो अंत में उसे आत्मग्लानि से भर देता हैं। इसीलिए ये 
हमेशा याद रखा जाना ज़रूरी है कि रिश्तों में कभी वो दरार ना आने पाये जिसे कभी भी भरा ना जा सके। या जिनके कारण अपने अपनों से इतने दूर चले जायें कि वापसी मुश्किल बहुत मुश्किल हो जाये। या फिर वापसी करते हुए सिर्फ़ और सिर्फ़ पश्चाताप के अलावा कुछ ना हों।

एक बात और येे कि हम किसी भी अहंकारवश बहुत सी बातें कभी किसी से कह नहीं पाते। फिर वो बात चाहे किसी से माफ़ी माँगने की हो या प्यार ज़ाहिर किये जाने की। जैसा कि फ़िल्म में दिखाया गया है कि संजय दत्त भी सुनिल दत्त साहब को वो सब कहना चाहते थे जो बरसों से उनके दिल में दबा था। मगर कह पाने से पहले ही दत्त साहब संजय दत्त को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए भगवान के पास चले जाते हैं। इससे पहले कि हमारे अपने किसी दिन दूर चले जायें एक बार जादू की झप्पी ले ली जाये और ज़िंदगी को काश कहने से बचा लिया जाये। 

#ManishSharma