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Sunday 24 November 2013

उठो और देश बुनो...



इन दिनों ’’राजनीति’’ का माहौल कॅाफी गर्म है हालाँ कि मैं हमेशा से ही इस मुद्दे पर अपनी राय रखने से बचता आया हूँ लेकिन मैं अपने आप को आखिर कब तक धोखा देते हुए सच कहने से बचता रहूँ, मेरे चाहने या ना चाहने से व्यवस्था में परिवर्तन हो ये सम्भव नहीं लेकिन व्यवस्था में परिवर्तन करने का प्रयास नहीं करने का दंश में जीवन पर्यतं नहीं सहना चाहता इसी लिए मन में चल रही कुछ संवेदनाओं को व्यक्त कर रहा हूँ।         
           ’’राजनीति’’ जाने कितनी सदियों से चली आ रही है ये राजनीति जिसका तात्पर्य होता है राज करने के लिए बनाए जाने वाली नीतियाँ लेकिन राज किस पर शायद जनता पर हालां कि इसका जवाब दिया जाना बेहद मुश्किल है, क्यों कि प्राचीन काल से ही चली आ रही इन नीतियों को देख कभी भी ऐसा नहीं लगा कि ये नीतियाँ जनकल्याणकारी रही हो, इन नीतियों से जनता का लाभ कम और राज करने वालों का लाभ शायद ज्यादा होता चला आया है, राजनीतिक पार्टीयों को उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अधिकाधिक मतों से विजय प्राप्त कर सत्ता में बने रहना ही रह गया है। लेकिन आम नागरिक को जीवन यापन करने के लिए क्या मूलभूत आवश्यकताऐं होती हैं इससे शायद किसी भी राजनीतिक पार्टी को सरोकार नहीं।
       ये राजनीतिक पार्टीयाँ अगर थोड़ा बहुत कुछ कर भी देती हैं तो उसे आने वाले चुनावों में विकास का मुद्दा बनाकर के चुनाव लड़ती है। कई प्रकार के लुभावने वादे और जनकल्याणकारी योजनाओं के लाए जाने का आश्वासन देती है, और जनता इन वादों के पूरे होने का आश्वासन लेते हुए अपने मत का प्रयोग करती है, ये अलग बात है कि कौन सी पार्टी जीतने बाद में गिरगिट की भांति रंग बदलने वाली हैं। चुनाव के दौरान किसी भी पार्टी के किसी भी नेता से मिलना बहुत ही आसान होता है लेकिन सत्ता में आ जाने के बाद की स्थिति बिल्कुल इससे विपरीत होती है। निर्वाचन आयोग द्वारा प्रचार किया जाता है कि सही प्रत्याशी का चुनाव करते हुए अपने मत का प्रयोग अवश्य करें जिससे कि सही और ईमानदार उम्मीद्वार सत्ता में आ सके। लेकिन उस सही और ईमानदार प्रत्याशी को कहाँ ढूँढा जाये ये एक आम नागरिक के जहन् में चल रहे सवालों में से एक बहुत बड़ा सवाल होता हैं लेकिन इस सवाल का जवाब शायद किसी के पास नहीं होता।
           राजनीतिक पार्टीयों द्वारा टिकट का निर्धारण किस प्रकार से किया जाता हैं ये समीकरण भी बड़े उलझे हुए होते हैं, राजनीतिक पार्टीयाँ सिर्फ उन प्रत्याशियों को ही टिकट देती हैं जिनकी जीत निश्चित हो इसका निर्धारण या जातिगत आधार पर किया जाता हैं या फिर ऐसे उम्मीद्वारों को टिकिट दे दिया जाता है जो किसी ना किसी प्रकार की अपराधिक गतिविधियाँ जैसे बलात्कार, हत्या, भ्रष्टाचार, हिंसक प्रकरणों में ही क्यों ना लिप्त रहे हो। हमारे देश के राजनेता विदेशों में उत्पादन और विकास किये जाने वाली कई प्रकार की नई तकनीकों जैसे कृषि, इंजिनियरिगं, इत्यादि को देखने के सिलसिले में सरकारी खर्चे पर विदेश दौरे पर भी जाया करते है, वहाँ जाकर के उन तकनीकों को लाकर के हमारे देश में लागू करते है, लेकिन यही राजनेता हमारे देश में विकसित देशों की भांति कानून व्यवस्था, चुनाव प्रक्रिया लागू करवाने से क्यों कतराते हैं क्यों नहीं जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को चुनाव करवाया जाता हैं, क्यों आर्थिक रूप से जनता पर चुनाव के बाद बेहाल कर दिया जाता हैं। अक्सर लोगों को चर्चा करते देखा जाता हैं कि हमारा देश अभी भी विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पीछे है, मान भी लिया जाये कुछ चीज़ों में हम पीछे हैं लेकिन आगे लाने के प्रयास भी तो सही प्रकार से नहीं हुए हैं। क्यों आए दिन होती रहती है जातिगत हिंसा, उग्र तनाव क्या लाभ हैं इन सबसे, नुकसान की तो शायद सारी सीमाऐं लाघं देती होगीं ये जातिगत हिंसा। इन स्थितियों में क्या होता हैं गरीब और गरीब हुऐ जा रहा है और अमीर और भी ज्यादा अमीर।
           लोग देश में अमन चाहते है, शातिं चाहते है, खुशहाली चाहते हैं अगर ऐसा नहीं हैं तो क्या कभी किसी ने सुना है कि किसी ने कहा हो कि हमें युद्ध बेहद पसन्द है, शायद नहीं, स्कूलों में बच्चों को ज्ञान दिया जाता हैं, प्रेम सौहर्द और एका करके रहने की बातें सिखाई जाती है लेकिन लेकिन क्या ये सारी बातें किताबी होती हैं क्यों वास्तविकता तो इससे परे हैं, एक राजनीतिक पार्टी दूसरी राजनीतिक पार्टी को नीचा दिखाने का एक भी अवसर नही छोड़ती, अपनी प्रसंसा, दूसरे की कमियाँ, क्या यही रह गया है राजनीति में। अन्य देशों को मैत्रीय होने का संदेश दिया जाता हैं लेकिन हम लोग कभी अपने देश में मैत्रीय सम्बध स्थापित कर पाए। सर्वश्रेष्ठ बनने की प्रतिस्पर्धा में कहीं हम हमारे देश को फिर से गुलाम बनाने की कवायद तो नहीं कर रहे।
           सोचो ग़र सारी राजनीतिक पार्टीयाँ मन से एक होकर प्रेम और सोहर्द से रहकर इस देश को सर्वश्रेष्ठ बनाने का प्रयास करे तो क्या हमारे देश में कोई भी ऐसा मुद्दा बचेगा जो हमारे देश को खोखला करें।

जब तुम

तुम ना होओगे

जब मैं

मैं ना हाऊँगां

तब तुम

मुझमें
होओगे

और मैं

तुझमें हाऊँगां

टूटेंगी फिर

सब दीवारें

जो मुझको

तुझसे बांट रही

मिट जाऐंगें

सब फ़ासले

जो तेरे मेरे

दरमयाँ रही

आओ मिलकर

हम देश बुने

आओ मिलकर

हम साथ चलें।

Wednesday 9 October 2013

दर्द से आहत लल्लू

    इस दुनिया में लल्लूू अकेला तो नहीं हैं दर्द का मारा, जो इस असहनीय दर्द से गुजर रहा हो, ना जाने कितने होगें उसके जैसेे, अनगिनत लोग, जिनकी गिनती हमारी कल्पना से भी परे हैं। जो इसी तरह अपने आपको हर पल मरते हुए ना देखना चाह करके एक ही बार में अपनी इहलीला समाप्त कर देना चाहते हो। लेकिन वे शायद ये सोचकर खामोश हो जाते हैं कि “ये जीवन हैं हर परिस्थिति में इसे जीना ही होगा।” लेकिन ना जाने क्यों लल्लूू को देखकर मेरे मन में ये विचार आ रहे हैं कि काश ऐ “मन” तू समन्दर होता और लल्लूू का सारा गम अपने में समा लेता।
“लल्लूू” एक ऐसा व्यक्ति है जो ईश्वर पर अटूट विश्वास रखते हुए सात्विक जीवन यापन करना चाहता हैं, पर इंसान जैसा सोचे अगर वैसा हो जाये तो फिर क्या अन्तर रह जायेगा भगवान में और इंसान में। वो जन्म से ही अनेक प्रकार के असाध्य रोगों से पीडि़त है। उसके घर वालों को दोे जून की रोटी के भी लाले पड़ रहे हैं, ऐसे में कहाँ से लाये वो लल्लूू के इलाज का पैसा। फिर भी उसके घर वाले अपने पेट पर पट्टियाँ बांधते हुए लल्लू के जन्म से ही उसका इलाज करवा रहे हैं, लेकिन लल्लूू का स्वास्थ्य कभी एक सप्ताह ठीक रहता तो आने वाले महीनों तक उसकी हिम्मत बिस्तर से उठ पाने की भी ना होती, लल्लूू की उम्र अब पैंतीस वर्ष की हैं अब उसे उसके पिता की लाठी बनना चाहिए था लेकिन अब भी उसके पिता ही उसे रोजमर्रा के कार्यों से निवृत करवा रहे हैं और लल्लूू के पिता उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी बेलदारी का काम कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं क्यों कि लल्लूू के छोटे भाई का भी कुछ समय पहले एक सड़क दुर्घटना में एक पैर टूट चुका हैं, और वो भी बिस्तर पर पड़ा हैं, दूसरा भाई हैं जो परिवार की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ते हुए घर से पृथक हो गया हैं। लल्लूू की भाभी भी उसे खरी खोटी सुनाने में कोई कसर ना छोड़ती हैं। लल्लूू बेचारा झेंपते हुए सब कुछ सुनता रहता हैं लेकिन लल्लूू की भाभी के सामने उसके बड़े भाई साहब की एक ना चलती, अब लल्लूू की माँ धुंधलाती आँखों से घर का सारा काम करती हैं, घुटनों के दर्द के मारे उठने बैठने में भी वो हमेशा खुद को तकलीफ में पाती हैं, माँ और पिता अपनी वृद्धावस्था को ध्यान में रखते हुए लल्लूू पर शादी करने का भी दबाव बनाते हैं लेकिन घर वालों के इस प्रस्ताव को लल्लूू ठुकरा देता हैं और लल्लूू घर वालों को जवाब देता हैं कि मैं अपना बोझ उठाने में सक्षम नहीं हूँ तो शादी के बाद क्या मुझे किसी ओर की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार हैं? लल्लूू के पिता उस पर झल्लाते हुए बोलते हैं तुम्हें शादी करनी होगी, जवाब में लल्लूू झुंझलाते हुए कहता हैं “नहीं कतई नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता” इस पर लल्लूू के पिता को उस पर गुस्सा आ जाता हैं और उसे कहते हैं “ चलो आज तक तुमने मुझे एक रूपया भी कमाकर नहीं दिया लेकिन तुम मेरा ये कहा भी नहीं मान रहे हो, आखिर कब तक मैं तुम्हारा बोझा ढ़ोता रहूँ।” इसी प्रकार के विवाद और क्लेश की स्थिति अब घर में निरंतर बनी रहती हैं।
रोज-रोज के क्लेश और तानाकशी से तंग आकर के एक दिन लल्लूू घर छोड़ कर किसी अन्जान शहर चला गया। जहाँ मीलों दूर तक लल्लूू को कोई नहीं जानता। महज़ घर से चले जाने से लल्लू के दुखों का अन्त हो गया होता तोे काॅफी होता लेकिन अब लल्लूू के सामने कई प्रकार के संकट उत्पन्न हो गए, दो जून की रोटी का जुगाड़, रहने के लिए भीड़ भरे शहर में ठिकाने की तलाश और अपनी बीमारी का इलाज करवाने के लिए पैसा कमाने की ज़द्दोजहद। वो काम की तलाश में दर बदर भटकता, पर कोई भी उसके कमजोर शरीर को देखकर उसे काम ना देता। दिन ब दिन लल्लूू का स्वास्थ्य और भी खराब होने लगा पर उसकी ऐसी दशा देखकर के कई लोग सहानूभूति दिखाते पर मदद को दूर तलक कोई भी नजर ना आता। इसलिए वो अपने जीवन को किश्तों में जी रहा हैं। एक दिन काम की तलाश में घूमते हुए लल्लूू किसी ठेकेदार से मिला, ठेकेदार ने उसे बेलदारी का काम दे दिया, लल्लूू ने चिलचिलाती धूप में गिरते सम्भलते हुए कुछ समय काम किया, काम करते हुए एकाएक  लल्लूू के सिर पर से पत्थरों की भरी तगारी लल्लूू के ऊपर गिर गई। लेकिन जैसा कि हमें विदित हैं मनुष्य प्रजाति को नुकसान शब्द से इतनी ईष्या हैं तो नुकसान हो जाना कहाँ बर्दाश्त हो सकता हैं, लल्लूू की मनोदशा को वहाँ भला कौन समझ पाता, क्योंकि जिंदा लाशें जो बसती हैं इस धरती पर। लल्लूू को चंद पैसे देकर ठेकेदार ने चलता किया। लल्लूू के जीवन में हमेशा भोर होने से पहले ही सांझ हो जाया करती हैं।
अगले ही दिन लल्लूू को तेज बुखार के साथ खांसी, जुकाम, उल्टी और दस्त भी होने लगी और वो दर्द से कराहने लगा। दूर तलक कोई नहीं हैं अपने कांधें का सहारा देकर उसे अस्पताल तक ले जाने वाला। इसलिए वो खुद ही लड़खड़ाते हुए अस्पताल में डॅाक्टर को दिखाने के लिए पहुँचा। अस्पताल में पहुँचते ही लल्लूू अचेत हो गया, आनन फानन में डॅाक्टर ने उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया, और ग्लूकोज़ की बोंतलें चढ़ानी शुरू कर दी। कुछ देर बाद जब लल्लूू को होश आया तो अपनी इस अवस्था पर फूट फूट कर रोने लगा, मगर वहाँ उसके पास उसका रूग्ण पोंछने वाला कोई नहीं। लावारिस की भांति दो दिन तक लल्लूू अस्पताल में ही भर्ती रहा। जब उसे अस्पताल से छुट्टी दी गई तो रास्ते में भरी दोपहर होने के कारण वो थोड़ी देर एक सूखे पेड़ की मद्दम छाँव में बैठ गया, और आँसू बहाते हुए अपने आप को कोसने लगा। और सोचने लगा उन जख््मों का मरहम कहाँ े इस दुनिया से मिले हैं। अब लल्लूू का धैर्य भी जवाब दे चुका हैं और उसे लग रहा था कि उसके जीवन में सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा रह गया हैं एक ऐसा अंधेरा जिसे मिटाने वाला रोशन सवेरा शायद कभी ना हो। जिस प्रकार सूरज और चद्रंमा को ग्रहण लगता हैं ठीक उसी प्रकार से उसके जीवन को भी ग्रहण लग गया हैं।
क्या महज् साँसों का चलना जीवन हैं, क्या रोगर्युक्त असहनीय दर्द को सहन करना जीवन हैं। क्या मुफलिसी में बिताया गया जीवन ‘‘जीवन‘‘ हैं। ये सवाल उसके खुद से थे और जवाब देने वाला कोई नहीं।
©Copyright                                                                          
                                   
                         मनीष शर्मा
              लेखक बाड़मेर (राजस्थान)



Sunday 15 September 2013

स्वामी नरेन्द्र विवेकानन्द



हिन्दी दिवस के पखवाड़े का आज दूसरा दिन हैं जिसमें संस्कार भारती, बाड़मेर की ओर से आयोजित स्वामी विवेकानन्द सार्द्ध शति पर काव्य संगोष्ठी का आयोजन आज गांधी चौक विधालय, बाड़मेर के प्रागंण में किया गया, जिसमें  शहर के कई जाने माने कवियों और साहित्यकारों ने शिरकत की। स्वामी विवेकानन्द जी के व्यक्तित्व पर मेरे द्वारा लिखी कविता जिसका शीर्षक “स्वामी नरेन्द्र विवेकानन्द” को आज प्रस्तुत करने का अनुभव मेरे लिए अविस्मरणीय रहा। स्वामी जी को शब्दों में बयान कर पाना बेहद मुश्किल है, लेकिन मेरे लिए प्रसन्नता की बात ये रही कि प्रसिद्ध कवियों और साहित्यकारों की शोहबत में रहकर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और मेरे द्वारा कही कविता की कवियों और साहित्यकारों ने सराहना की। इस सराहना ने मेरे भीतर एक नई ऊर्जा का संचार सा कर दिया हैं और वरिष्ठ कवियों और साहित्यकारों द्वारा मिले इस प्यार के कारण मुझमें अच्छा कार्य करने का जज्बा भी जाग उठा। गुजरे दिन से मेरी शिथिलता आज कुछ कम थी, लेकिन मैं अपने आप को पूरी तरह से सहज महसूस नहीं कर पा रहा था लेकिन सहज होने का बार बार प्रयास ज़रूर कर रहा था। खैर इसी के साथ एक अच्छी काव्य संगोष्ठी का समापन हुआ पुरस्कार वितरण के साथ।

स्वामी नरेन्द्र विवेकानन्द


 जिनके मुख पर सदा ही रहता

वीर पुरूष सा तेज अलौकिक
 

जिनकी काया में बल रहता
 

इन्द्रदेव के वज्र के माफि़क

शांत चित्त और निर्मल वो थे
 

वाणी से रस माधुर्य था टपका
 
भाषण देते थे वो ऐसे
 

जैसे कोई शेर हो गरजा 

मन से थे वे दृढ़ संकल्पी
 

आत्मा से भाव विभोर
 

नैनों में थी चमक निराली
 

पुरूषार्थ से थे सराबोर
 

पूजा पाठ और ध्यान योग में
 

भक्ति उनकी पूरी थी
 

काम क्रोध और मोह माया से
 

मीलों उनकी दूरी थी
 

कर्मयोग का भेद सिखाकर
 

जग को दिया नया आधार
 

हिन्द प्रांत की गाथा गाकर
 

पश्चिम को दिये नये विचार
 

हिन्दी क्या है हिन्दू क्या है
 

अर्थ बताया ऐसे साधक
 

हिन्दी क्या है हिन्दू क्या है

थे भारतीय संस्कृति के प्रचारक

जग जाने हैं स्वामी उनको
 

माँ के थे वो नरेन्द्रनाथ
 

छवि थी उनकी बड़ी ही अद्भुत

सादा जीवन उच्च विचार

उनके पदचिन्हों पर चलना  
 

चाहे भारत माँ का लाल
 

यी दिशा दी है  "मन" को
 

हो साकार भारत माँ का ख्वाब
 
आत्मसात कर लिया हैं जिको
 

नाम जपे हर कंठ
 

आदर्श हैं और वो ही रहेंगें
 

स्वामी विवेकानन्द !!


Saturday 14 September 2013

शिथिल मन



आज हिन्दी दिवस के अवसर पर हमारे शहर बाड़मेर में एक काव्य संगोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसमें मुझे भी शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ, बहुत ही मंझे हुए कवि और साहित्यकार थे इस संगोष्ठी में। एक श्रोता बनकर तो मैंने कवियों से कविताऐं कई बार सुनी पर एक कवि का कविता कहने का अहसास क्या होता है वो मैंने आज पहली बार महसूस किया।

कविता पठन से पहले की शिथिलता और मन में उत्पात एक विचित्र सी स्थिति होती है हालाँ कि मैं इससे पहले कई बार किसी ना किसी प्रकार के विषयों पर अभिव्यक्ति देने के लिए मंच पर जा चुका था लेकिन ये सत्य हैं कि हर एक जगह का अपना एक अलग ही दबाव होता हैं और यहाँ में खुद को कुछ ऐसे ही दबाव के तले दबा महसूस कर रहा था।

सभी लोगो का ध्यान भी मुझ पर केन्द्रित हो गया था और मेरी दशा बिल्कुल वैसी थी जैसा कि एक नए प्रेमी की होती हैं जो अपनी प्रेमिका को प्रेम का इज़हार करने से पहले अपने मन को ना जाने कितनी बार समझाता होगा पर “मन” मन भला कहाँ समझ पाता है, संगोष्ठी के आरम्भ से लेकर अन्त तक कविताओं के रस से माहौल सराबोर रहा।


एक अच्छे अनुभव के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ जिसमें सभी कवियों को पुरस्कृत कर सम्मानित किया गया। शुक्रिया अदा करता हूँ मैं उस रब का और उन लोगों का जिन्होनें मुझे मंजि़ल की और अग्रसर होने का फलसफ़ा सिखाया।

Sunday 17 March 2013

मेरी जिंदगी मेरे नियम


मैं मेरी जिंदगी मेरे मुताबिख जीना चाहता हूँ, और ये भी ख्याल रखना चाहता हूँ कि मेरी वजह से किसी कि भावनाऐं आहत ना हो, पर शायद ये मुमकिन नहीं क्यों कि आग और पानी भला एक दूसरे के मित्र कैसे बन सकते हैं, मुझ पर पाश्चात्य संस्कृति की गहरी छाप हैं पर शायद ये मेरी संस्कृति वाले लोगों को बरदाश्त नहीं, इन्हें शायद पाश्चात्य संस्कृति में अश्लीलता नज़र आती हैं पर मेरी नज़र में अश्लीलता देखने वाले की नज़रो में होती हैं ना कि संस्कृति में। पाश्चात्य संस्कृति वाले लोग कम से कम जैसे हैं वैसे दिखाई तो देते हैं हम लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं, मन में तो अश्लीलता भरे हुए हैं और चेहरे पर सात्विक नकाब लगाऐ घूम रहे हैं, मैं जानता हूँ मेरे इन लव्जों की वज़ह से मेरी छवि उन लोगों में बहुत खराब हो जाएगी जो मेरी बात से सरोकार नहीं रखते पर जैसा कि मैंने कहा ‘‘मैं मेरी जिंदगी मेरे मुताबिख जीना चाहता हूँ‘‘ तो क्यों ना मैं  जीने का प्रयास बड़ी शिद्दत से करूँ.........

Saturday 2 March 2013

"तानाशाह सम़ाज़, बेबस इंसान"



अग़र मैं सब कुछ सम़ाज़ के मुताबिख करता हूँ तो मैं एक समाज़िक प्राणी हूँ अगर मैंने सम़ाज़ के खिलाफ़ ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने का प्रयास किया या फ़िर अपनी ज़िदगीं को अपने सिद्धातों के अनुसार जीने का प्रयास किया तो मैं (समाज़िक प्राणी) सम़ाज़ से बाहर। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि क्या, मैं इसी सम़ाज़ का अंश हूँ जो मेरी हर खुशी में शरीक़ हैं, लेकिन ग़म़गीन अवस्था में क्यों मैं खुद तन्हा ही पाता हूँ कहाँ चला जाता हैं सम़ाज़ उस वक्त, जब़ मुझे सम़ाज़ की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती हैं, ढकोसला लग़ता हैं मुझे ये सम़ाज़ और इसके नियम, जब सम़ाज़ को मेरी परवाह नहीं तो मुझे भला क्यों परवाह हो इस सम़ाज़़ की।

Monday 25 February 2013

मैं कायर हूँ




मैं कायर हूँ, बुज्ज़दिल हूँ

मैं वो बनने का प्रयास कर रहा हूँ

जो मैं नहीं हूँ

झूठी मुस्कान लिए

नकली नकाब़ पहने

मैं उन लोगों की हाँ में हाँ भर रहा हूँ

जो इस काबिल नहीं

मैं उन लोगों की जी हूज़ूरी कर रहा हूँ

जो इस लायक नहीं

मुझे ये करना होगा

क्यों कि मेरे पास

इसके सिवा कोई चारा नहीं

क्यों कि मुझमें बगावत

करने की ताकत नहीं....

Sunday 24 February 2013

बेबस निग़ाहें



मैं किस खुशी की बात करूँ

जब कि ग़म तो, हर बहाने से हैं

तुम्हें होगी फ़िकर जहाँ भर की

उसके पास इतना

उसके पास  उतना

मुझे नहीं चाहिए, शान ओ शौकत

मुझे नहीं चाहिए, नाम ओ शोहरत

मेरी बेबस निग़ाहें तरस रही

दो जून की रोटी को

मेरी खामोशियाँ हैं पुकार रही

सिर्फ एक लंगोटी को

जिस्म से आह निकल रही

सांसें मेरी उखड़ रही

तुम परवाह करो तुम्हारी

मेरा क्या, मैं ऐसे ही जी लूंगा

ना जी सका, तो थोडा़-थोडा़ मर लूंगा

तुम्हारे लिए बेफ़िजूल हैं

मेरी ये सारी कहानी

तुम परवाह करो

सिर्फ तुम्हारी

मैं  जी लूंगा

ना जी सका

तो थोडा़-थोडा़ मर लूंगा...

Tuesday 12 February 2013

मैं तुम नहीं



मैं वो नहीं बनना चाहती, जो तुम हो

मैं वो नहीं होना चाहती, जो तुम हो

मैं तुम हो गयी तो मैं, मैं नहीं रहूंगी

मैं थम गयी, तो फिर कभी नहीं बहूँगी

मेरा वजूद तुम नहीं हो

मेरी पहचान तुम नहीं हो

मेरे जीने की वज़ह तुम नहीं हो

मेरे हँसने का सबब तुम नहीं हो

मेरे अल्फाज़ तुम नहीं हो

मेरी परवाज़ भी तुम नहीं हो

तुमने मुझे क्या समझा

भोग विलास का साधन

तुमसे मुझे क्या हासिल

ग़म, दर्द, यातना

मैं सदियों से सहती रही हूँ

क्या अब भी सहूँ

मैं बरसों से खमोश रही हूँ

क्या अब भी चुप रहूँ....?





Monday 7 January 2013

‘‘हार गई ज़िदगीं‘‘



दोस्तों !                                                                                                                                                      

               दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को घटित 23 वर्षीय छात्रा के साथ हुई बलात्कार की घटना को मैने अपने शब्दों को एक कविता के रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया हैं उम्मीद रखता हूँ कि आप लोग इसे कविता ना समझकर के एक ऐसा आहृवान समझेगें जिसमें हम सभी मिलकर के यह प्रण करें कि समाज में फ़िर से कभी भी बलात्कार जैसा घिनौना कृत्य दोबारा ना हो पाये।



जीवन जीना चाहती हूँ मैं

सारी खुशियाँ

अपनी झोली में समेट के

दुनिया देखना चाहती हूँ मैं

पिया संग ब्याह रचा

डोली में बैठ के

कुछ ख्वाब हैं मेरे कुछ अरमां भी

कुछ हया हैं मुझमें कुछ लाज भी

हंसती हूँ खेलती हूँ गुनगुनाती हूँ

कभी-कभी होती हूँ गमग़ीन

तो भी मुस्करा लेती हूँ

बेहद खूबसूरत था अतीत मेरा

कल्पना हैं उम्दा होगा भविष्य भी

मगर क्या अपने क्या बेगाने

हर एक नजर हैं हवस भरी

मैं इंसानों के शहर में सुरक्षित नहीं

तो किस शहर में घर बसाऊँ

मेरे सव्वालों का जवाब

किसी के पास नहीं

कोई तो बताओ

कोई तो सुझाओ

अब मैं कहाँ जाऊँ

सुना था हसरतें

कभी पूरी नहीं होती

पर आज यकीन भी हो रहा हैं

सुना था वक्त

सदा एक सा नहीं रहता

पर आज महसूस भी हो रहा हैं

आज एक भयकंर तूफाँ आया हैं

मझधार में भगवान ने मुझे फँसाया हैं

मैने गौर से देखा तो मेरे सामने

जालिम, वैहशी, हैवान, दरिंदे थे

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं

वो पूरे के पूरे छः थे

मैं बहुत गिड़गिड़ाई

की लाख दुहाई

पर किसी ने मेरी

एक ना मानी

मिलकर सभी ने बारी-बारी

तार-तार कर दी मेरी अस्मत

मैं स्तब्ध थी लहू से लथपथ

फेंक दिया जालिमों ने

मुझे र्निवस्त्र कर पथ पर

राहगीरों की निगाह

मुझे घूरती रही

पर मदद को हाथ

किसी के ना उठे

अब मैं दोष मढूँ

तो किस पर

समाज़ पर, भगवान पर

या फिर अपनी

किस्मत पर

आज ये मेरे साथ

कल कोई और होगा

पर किसी को नहीं हैं जुर्म से गिला

चलता आ रहा हैं और चलता रहेगा

क्या सदैव ये सिलसिला

मेरा जीवन-मृत्यु संघर्ष जारी हैं

क्यों कि मैं जीवन जीना चाहती हूँ

मै बलात्कारियों के खिलाफ

सख्त कानून की इच्छा रखती हूँ

जो मैंने सहा वो कोई और ना सहे

भगवान से बस यहीं कामना रखती हूँ

मगर जीवन-मृत्यु संघर्ष में

आखिर मृत्यु विजयी रही

हार गई जिदंगी

हार गई जिदंगी!!
                         अलविदा!