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Friday 12 May 2023

मन की दशा, मन ही जाने।

मन की दशा, मन ही जाने।


पहली वाली घटना थोड़ी पुरानी है और दूसरी वाली घटना नई।


पहली वाली घटना ये है कि मैं तक़रीबन तीन से चार साल पहले अपने ससुराल सूरत (गुजरात) गया था। वहाँ के खमण ढोकले तो अच्छे हैं ही, पानीपुरी भी अच्छी है। एक शाम हुआ यूँ कि मैं, मेरी पत्नी और ठाकुर जी बाज़ार पानी पूरी खाने गए। पानीपुरी बेचने वाले कि दशा देखकर लगा कि कितना संघर्ष करते हैं ये लोग। यूँ तो मैं अंतर्मुखी हूँ लेकिन जब मुझे लगता है कि सामने वाले व्यक्ति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है तो मैं जिज्ञासु होकर सवालों के अंबार लगा देता हूँ। साथ ही मैं ये भी सोच लेता हूँ कि सामने वाला व्यक्ति कहीं ये ना सोच ले कि हमारा धंधा ख़राब रहे है साब। अब ये सामने वाला व्यक्ति सोचेगा या नहीं लेकिन मैं ज़रूर सोच लेता हूँ। लेकिन फिर भी दबी आवाज़ में सवाल पूछना भी ज़ारी रखता हूँ। मैंने पानीपुरी बनाने वाले भईया से पूछा कि कहाँ के रहने वाले हो? जवाब मिला मध्यप्रदेश। मैंने मन में सोचा कि कितने मजबूर होंगे वो लोग, जो अपने घर बार छोड़कर परदेस में कमाने जाते हैं। फिर दूसरा सवाल पूछने से पहले मैंने दो तीन पानी पूरी खाई। बहुत बड़ी बड़ी पानीपुरी थी और स्वाद भी लाज़वाब। मुँह में रखी पानी पूरी ख़त्म होते ही मैंने दूसरा सवाल किया। यहाँ जिस मकान में रहते हो उसका किराया कितना है ? तो पानीपुरी वाले भईया बोले, साब किराए पर नहीं रहते। मैं सोच में डूब गया महानगर में रहते हैं और कह रहे है किराए पर नहीं रहते। वे आगे बोले घर का मकान है साब। लगभग पंद्रह वर्ष पहले सूरत आया था। मध्यप्रदेश के गाँव में भी ख़ुद का दो मंज़िला मकान है और साब ये लाइन से थोड़ी थोड़ी दूरी पर ठेले देख रहे हैं आप? मैंने ज़वाब में कहा "हाँ"। भईया बोले ये सब भी मेरे ही हैं। इन पर जो काम कर रहे है वे मेरे भाई बंद, रिश्तेदार और गाँव के लोग हैं। इसके बाद मैंने कोई और सवाल नहीं किया। पानीपुरी अच्छी थी, इसका धन्यवाद करके मैं चला गया।


अब दूसरी घटना के बारे में बताता हूँ। मेरे शहर बाड़मेर में एक पब्लिक पार्क है। कभी कभार ठाकुर जी और मैं वहाँ जाते हैं। पार्क में घूमकर आने के बाद बाहर गेट पर लगे बर्फ़ गोले के एक ठेले पर गए। ठेले पर पाँच से सात शुगर सिरप के रंगों की बोतलें, एक बोरी में ढंकी बर्फ़ और बर्फ़ को घिसने वाली मशीन, कुछ गिलासें और चमच्च बस इतना ही सामान रहा होगा ठेले पर। वैसे बर्फ़ गोले को बाड़मेर में झमक कहते हैं। बर्फ़ गोले वाले भईया जब तक बर्फ़ गोला बना रहे थे, तब तक मैंने पानीपुरी वाले भईया की तरह इनसे भी कुछ सवाल पूछे। आप कहाँ के हो भईया? भईया बोले जूनागढ़। फिर मैंने पूछा बाड़मेर में किराए पर रहते हो? भईया बोले हाँ। इनकी भी दशा देखकर मन व्यथित हुआ। फिर मैंने पूछा वो सवाल जो कभी किसी से नहीं पूछा करते। मैंने पूछा, कितना पैसा कमा लेते हो भईया दिन भर में। भईया बोले दोपहर एक बजे घर से निकलते हैं। बाज़ार होते हुए शाम को चार बजे पार्क के बाहर पहुँचते हैं और नौ बजे घर चले जाते हैं। पैसा लगभग दिन का पच्चीस सौ से तीन हज़ार। मासिक हुआ पिचहतर हज़ार से नब्बे हज़ार के आस पास। इसके बाद मैंने कोई दूसरा सवाल नहीं पूछा। बर्फ़ गोला खाया और मैं और ठाकुर जी घर लौट आये।


इन दोनों घटनाओं के अंत में मैंने अपनी नौकरी वाली दशा पर मंथन किया। सोचा कि कैसे जाल में फँसा हूँ मैं और ये ज़माना। जो दिख रहा है, वो दरअसल वैसा है नहीं। जो जैसा है वो दरअसल वैसा दिख रहा है नहीं। 


वास्तविकता तो ये लगती है कि लोग अगर बेरोज़गार हैं या कम पैसे कमा रहे है तो उसकी वज़ह है झूठी प्रतिष्ठा। जिस दिन भारत में उद्यम को भी नौकरी की भांति सम्मान का दर्जा प्राप्त हो जायेगा, उस दिन कोई बेरोज़गार नज़र नहीं आएगा।


ख़ैर, मेरे कुछ चाहने वाले चाहते हैं कि मैं यूट्यूब पर सक्रिय होऊँ। लेकिन हर बार मैं उनकी बात टालता आया हूँ। टालता इसलिए भी आया हूँ कि मुझे बोलना, लिखने जितना आसान नहीं लगता। बिना कोई ख़ास कंटेट के 649 सब्सक्राइबर्स के साथ मेरा यूट्यूब चैनल 4 फरवरी 2010 से मेरा इंतज़ार कर रहा है। उम्मीद कि बहुत जल्द इस पर कंटेंट लेकर हाज़िर होऊँगा। कंटेट तल्ख़ होगा, मसालेदार नहीं। चैनल का उद्देश्य होगा, मेरी नज़र और नज़रिए से दुनिया को देखना।


https://youtube.com/manishsharma536


~ मनीष शर्मा


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